Monday, November 1, 2010

अमर अकबर एन्थोनी

थोड़े दिन पहले की बात हैं मैं केबल पर 'अमर अकबर एन्थोनी' फिल्म देख रही थी,इससे पहले भी यह फिल्म टी.वी पर देख चुकी हूँ, होता हैं न कभी -कभी किसी फिल्म को देखकर उसे बार -बार देखने का मन करता हैं। तो कभी कुछ खास दृश्य देखने के लिए भी हम कोई फिल्म दुबारा भी देख लेते हैं ।

फिल्म चल रही थी, और मेरा मन खो गया एक पुरानी स्मृति मैं, जो इस फिल्म से जुडी थी। चेहरे पर जो मुस्कान छोड़ जाए वो बात बचपन के अलावा कोई और हो ही नहीं सकती। तो फिर देर किस बात की हैं,आप सब हैं, मैं हूँ और मेरी वो खुबसूरत याद।
बात तब की हैं जब हम आन्ध्र-प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले मैं स्थित राजमुंदरी नामक छोटे शहर मैं रहा करते थे। उस वक़्त यहाँ इतने सिनेमा -घर नहीं हुआ करते थे और जो थे उनमे ज्यादातर तेलुगु मूवी चला करती थी, हिंदी मूवी अगर लगी भी तो तीन -चार दिन से ज्यादा सिनेमा -घर मे नहीं टिकती थी। ..लेकिन जब 'अमर अकबर एन्थनी ' मूवी लगी तो लोग दीवाने हो गए,स्वाभाविक सी बात हैं अमिताभ बच्चन जी की जो मूवी थी, जो सिनेमा -घर हिंदी सिनेमा को लेकर उदासीन रहते थे, अचानक से जाग गए। हर शो हाउस -फुल जा रहा था।
मेरे मन मैं भी इस मूवी को देखने की इच्छा जाग उठी । अब पिताजी को सिनेमा दिखाने के लिए राज़ी करना था, जो इतना आसन तो नहीं था लेकिन इतना मुश्किल भी नहीं था। चलो किसी तरह पिताजी को मना लिया और अगले दिन सिनेमा जाना तय हो गया। मैं सारी रात ख़ुशी के मारे सो न सकी। सुबह जल्दी उठ गयी, उठते ही खिड़की के बाहर नज़र गयी, अरे!आज यह सूरज की रौशनी अलग सी क्यूँ हैं,मैंने मन ही मन सोचा अरे इसे भी तो पता हैं की आज मैं सिनेमा जो देखने जाने वाली हूँ इसलिए मेरी ख़ुशी मैं यह भी अपनी अनोखी छटा बिखेर रहा हैं। पर मन मे कही यह डर भी लग रहा था, कही मेरे इस सिनेमा देखने के कार्यक्रम मैं कोई अवरोध न आजाए, क्यूंकि पिताजी इनजीनियर थे और फैक्ट्री मैं अक्सर कोई न कोई मशीन बिगड़ जाया करती थी,और उस वजह से काफी बार बाहर जाने का प्रोग्राम रद्द करना पड़ता था। मैं भगवान् से प्राथना कर रही थी "हे भगवान् जी आज कोई अवरोध न पैदा करना, सभी मशीनों को दुरुस्त रखना।
लेकिन मेरा डर निराधार साबित हुआ और हम तय समय के अनुसार फिल्म देखने के लिए निकले पिताजी के एक मित्र सपरिवार हमारे साथ फिल्म देखने के लिए चले। सिनेमा -घर पहुचने के बाद पापा और उनके मित्र टिकेट लेने चले गए, मैं बस अपने खयालो मैं थी अब पापा टिकिट लेकर आते ही होंगे और मैं फिल्म देखूंगी ........वगैरह वगैरह । थोड़ी देर बाद पापा ने आकर बताया बेटा घर चलो टिकिट नहीं मिली। अब तो मेरा चेहरा रूआँसा हो गया, चेहरा लटककर घुटने तक पहुच गया । पापा के मित्र ने जब देखा की मैं उदास हूँ तो कहा "कोई बात नहीं बेटा फिल्म ना सही हम होटल चलते हैं । अब चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आ गयी। होटल से घर लोटे तो सभी अपने काम में व्यस्त हो गए, पर मेरे मन मैं एक ही बात थी काश के फिल्म देखने को मिल जाती। पिताजी ने आकर कहा कोई नहीं हम तीन चार दिन बाद फिर से फिल्म देखने जायेंगे ।
फिर तीन -चार दिन बाद गए वही फिल्म देखने, इस बार तीन चार परिवार और भी थे तो एक छोटी सी बस कर ली थी। लेकिन इस बार भी वही हुआ जो पिछली बार हुआ था । फिर से टिकिट नहीं मिली । मुझे बड़ी भुनभनाहट हुई । तभी किसी ने कहा अपने पास बस तो हैं ही क्यूँ न कही और घूम फिर कर आया जाए और तय हुआ चलो धोलेश्वरम चलते हैं जो राजमुंदरी के निकट ही हैं। ....हूँ धोलेश्वरम सो बार तो देख लिया पर सब गए तो हम भी चले गए । धोलेश्वरम से लौटे तो बुरी तरह से थकी हुई थी। अगले दिन स्कूल के लिए तैयार होते वक़्त सोच रही थी, अब नहीं लगता की तीसरी बार पापा फिल्म लेकर जायेंगे,बस यही सोचते -सोचते स्कूल चली गयी ।
फिर एक दो दिन बाद शाम को आफिस से घर लोटने के बाद, पापा ने कहा चलो आज फिर चलते हैं वही फिल्म देखने, जो बात होने की उम्मीद मैंने छोड़ दी थी, उस बात को होते देख आप अंदाजा लगा सकते हैं मेरे मन मैं उठती खुशियों की लहरों का । इस बार हम फिल्म का सेकेण्ड शो देखने के लिए निकले । सिनेमा -घर पहुचे पर मन मैं संशय था कही पिछली बार की तरह इस बार भी कही ...... हे भगवान् इस बार तो टिकिट मिलवा देना । पर जो होना लिखा होता हैं, वो होके रहता हैं,उसे भगवान् भी नहीं टाल सकता। जानते हैं आप लोग इतिहास दोहराया मेरा मतलब तिहराया गया क्यूंकि तीसरी बार भी टिकिट नहीं मिली । अब तो सिवाए घर लोटने के अलावा कोई और जगह घूम आने का विकल्प नहीं बचा था । हताश होकर बस लोट ही रहे थे तभी किसी ने पीछे से आवाज़ लगाई । मुडकर देखा एक अंकले पापा के पास आये और कहने लगे "मैंने इस फिल्म की टिकिट तो लेली हैं पर अब मुझे यह फिल्म नहीं देखनी हैं, आप हमारी यह टिकिट ले लीजिये। मुझे उनमे भगवान् नज़र आने लगे ।
जिसका मुझे था इंतज़ार वो घडी आगई -आगई ........और फिल्म देखने की मेरी चाह पूरी हो गयी पूरी हो गयी ,अब यह और बात हैं फिल्म का कितना हिस्सा जागते हुए और कितना सोते zzzzzz देखा ।
तो कैसा लगा आपको यह किस्सा ।



17 comments:

  1. आखिर पापाजी ने आपकी ख्वाहिश पूरी कर ही दी।
    रोचक संस्मरण, अच्छा लगा।

    प्रणाम

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  2. शीतल जी
    हो सके तो वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें। टिप्पणी करने में समस्या आती है और इसकी कोई जरूरत भी नहीं है।
    आभार होगा।

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  3. दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें ... ...

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  4. यही तो खेल है उपरवाले का.जब सारी उम्मीदें छुट जाती हैं तभी चमत्कार होता है.

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  5. बड़ा नायाब किस्सा था :) पर इसी बहने आपकी आउटिंग खूब हुई और फिल्म तो देख ही ली भगवान जो करता है अछे के लिए ही करता है हा हा हा .

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  6. मुझे ऐसा लगा मानो इतने बरस पहले के राजमुंदरी के उस कस्‍बे और समय को मैं जी रहा हूं। बहुत बढिया, बहुत-बहुत-बहुत बढिया किस्‍सा।
    कोलकाता में हर साल सिनेमा फेस्टिवल होता है, मुख्‍यमंत्री जी फिल्‍मों और कविताओं के बहुत बडे फैन हैं, लेकिन अफसोस अब फिल्‍में ड्राइंग रूम में इतनी आसानी से उपलब्‍ध हैं कि लोग सिनेमाघरों और फैस्‍टीवलों में जाना ही नहीं चाहते। लेकिन 70 एम एम का अपना ही कुछ अलग लुत्‍फ है।
    ऐसे ही लिखते रहिए।

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  7. रोचक संस्मरण, अच्छा लगा। धन्यवाद्|

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  8. रोचक संस्मरण

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  9. आपकी चाह आखिर पुरी हो गई.
    सच्ची चाहत हो तो वह पूरी होकर रहती है.
    किस्सा रोचक लगा.आभार.

    चाहत का ही तो सब खेल है.

    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है

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  10. रोचक संस्मरण, अच्छा लगा

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  11. अच्छा संस्मरण है. कभी कभी यादें कितना सुकून देती हैं.

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  12. नववर्ष की आपको बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ.

    शुभकामनओं के साथ
    संजय भास्कर

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  13. आपको सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें!

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