Monday, November 1, 2010

अमर अकबर एन्थोनी

थोड़े दिन पहले की बात हैं मैं केबल पर 'अमर अकबर एन्थोनी' फिल्म देख रही थी,इससे पहले भी यह फिल्म टी.वी पर देख चुकी हूँ, होता हैं न कभी -कभी किसी फिल्म को देखकर उसे बार -बार देखने का मन करता हैं। तो कभी कुछ खास दृश्य देखने के लिए भी हम कोई फिल्म दुबारा भी देख लेते हैं ।

फिल्म चल रही थी, और मेरा मन खो गया एक पुरानी स्मृति मैं, जो इस फिल्म से जुडी थी। चेहरे पर जो मुस्कान छोड़ जाए वो बात बचपन के अलावा कोई और हो ही नहीं सकती। तो फिर देर किस बात की हैं,आप सब हैं, मैं हूँ और मेरी वो खुबसूरत याद।
बात तब की हैं जब हम आन्ध्र-प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले मैं स्थित राजमुंदरी नामक छोटे शहर मैं रहा करते थे। उस वक़्त यहाँ इतने सिनेमा -घर नहीं हुआ करते थे और जो थे उनमे ज्यादातर तेलुगु मूवी चला करती थी, हिंदी मूवी अगर लगी भी तो तीन -चार दिन से ज्यादा सिनेमा -घर मे नहीं टिकती थी। ..लेकिन जब 'अमर अकबर एन्थनी ' मूवी लगी तो लोग दीवाने हो गए,स्वाभाविक सी बात हैं अमिताभ बच्चन जी की जो मूवी थी, जो सिनेमा -घर हिंदी सिनेमा को लेकर उदासीन रहते थे, अचानक से जाग गए। हर शो हाउस -फुल जा रहा था।
मेरे मन मैं भी इस मूवी को देखने की इच्छा जाग उठी । अब पिताजी को सिनेमा दिखाने के लिए राज़ी करना था, जो इतना आसन तो नहीं था लेकिन इतना मुश्किल भी नहीं था। चलो किसी तरह पिताजी को मना लिया और अगले दिन सिनेमा जाना तय हो गया। मैं सारी रात ख़ुशी के मारे सो न सकी। सुबह जल्दी उठ गयी, उठते ही खिड़की के बाहर नज़र गयी, अरे!आज यह सूरज की रौशनी अलग सी क्यूँ हैं,मैंने मन ही मन सोचा अरे इसे भी तो पता हैं की आज मैं सिनेमा जो देखने जाने वाली हूँ इसलिए मेरी ख़ुशी मैं यह भी अपनी अनोखी छटा बिखेर रहा हैं। पर मन मे कही यह डर भी लग रहा था, कही मेरे इस सिनेमा देखने के कार्यक्रम मैं कोई अवरोध न आजाए, क्यूंकि पिताजी इनजीनियर थे और फैक्ट्री मैं अक्सर कोई न कोई मशीन बिगड़ जाया करती थी,और उस वजह से काफी बार बाहर जाने का प्रोग्राम रद्द करना पड़ता था। मैं भगवान् से प्राथना कर रही थी "हे भगवान् जी आज कोई अवरोध न पैदा करना, सभी मशीनों को दुरुस्त रखना।
लेकिन मेरा डर निराधार साबित हुआ और हम तय समय के अनुसार फिल्म देखने के लिए निकले पिताजी के एक मित्र सपरिवार हमारे साथ फिल्म देखने के लिए चले। सिनेमा -घर पहुचने के बाद पापा और उनके मित्र टिकेट लेने चले गए, मैं बस अपने खयालो मैं थी अब पापा टिकिट लेकर आते ही होंगे और मैं फिल्म देखूंगी ........वगैरह वगैरह । थोड़ी देर बाद पापा ने आकर बताया बेटा घर चलो टिकिट नहीं मिली। अब तो मेरा चेहरा रूआँसा हो गया, चेहरा लटककर घुटने तक पहुच गया । पापा के मित्र ने जब देखा की मैं उदास हूँ तो कहा "कोई बात नहीं बेटा फिल्म ना सही हम होटल चलते हैं । अब चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आ गयी। होटल से घर लोटे तो सभी अपने काम में व्यस्त हो गए, पर मेरे मन मैं एक ही बात थी काश के फिल्म देखने को मिल जाती। पिताजी ने आकर कहा कोई नहीं हम तीन चार दिन बाद फिर से फिल्म देखने जायेंगे ।
फिर तीन -चार दिन बाद गए वही फिल्म देखने, इस बार तीन चार परिवार और भी थे तो एक छोटी सी बस कर ली थी। लेकिन इस बार भी वही हुआ जो पिछली बार हुआ था । फिर से टिकिट नहीं मिली । मुझे बड़ी भुनभनाहट हुई । तभी किसी ने कहा अपने पास बस तो हैं ही क्यूँ न कही और घूम फिर कर आया जाए और तय हुआ चलो धोलेश्वरम चलते हैं जो राजमुंदरी के निकट ही हैं। ....हूँ धोलेश्वरम सो बार तो देख लिया पर सब गए तो हम भी चले गए । धोलेश्वरम से लौटे तो बुरी तरह से थकी हुई थी। अगले दिन स्कूल के लिए तैयार होते वक़्त सोच रही थी, अब नहीं लगता की तीसरी बार पापा फिल्म लेकर जायेंगे,बस यही सोचते -सोचते स्कूल चली गयी ।
फिर एक दो दिन बाद शाम को आफिस से घर लोटने के बाद, पापा ने कहा चलो आज फिर चलते हैं वही फिल्म देखने, जो बात होने की उम्मीद मैंने छोड़ दी थी, उस बात को होते देख आप अंदाजा लगा सकते हैं मेरे मन मैं उठती खुशियों की लहरों का । इस बार हम फिल्म का सेकेण्ड शो देखने के लिए निकले । सिनेमा -घर पहुचे पर मन मैं संशय था कही पिछली बार की तरह इस बार भी कही ...... हे भगवान् इस बार तो टिकिट मिलवा देना । पर जो होना लिखा होता हैं, वो होके रहता हैं,उसे भगवान् भी नहीं टाल सकता। जानते हैं आप लोग इतिहास दोहराया मेरा मतलब तिहराया गया क्यूंकि तीसरी बार भी टिकिट नहीं मिली । अब तो सिवाए घर लोटने के अलावा कोई और जगह घूम आने का विकल्प नहीं बचा था । हताश होकर बस लोट ही रहे थे तभी किसी ने पीछे से आवाज़ लगाई । मुडकर देखा एक अंकले पापा के पास आये और कहने लगे "मैंने इस फिल्म की टिकिट तो लेली हैं पर अब मुझे यह फिल्म नहीं देखनी हैं, आप हमारी यह टिकिट ले लीजिये। मुझे उनमे भगवान् नज़र आने लगे ।
जिसका मुझे था इंतज़ार वो घडी आगई -आगई ........और फिल्म देखने की मेरी चाह पूरी हो गयी पूरी हो गयी ,अब यह और बात हैं फिल्म का कितना हिस्सा जागते हुए और कितना सोते zzzzzz देखा ।
तो कैसा लगा आपको यह किस्सा ।



Tuesday, July 20, 2010

बिल्ली मौसी .

ऊपर दिए गए शीर्षक को देख आप सोच रहे होंगे की मैं आपको 'एनीमल प्लानेट' या फिर 'नेशनल जिओग्राफिक चैनल' की सैर को लिए जा रही हूँ और जंगली बिल्लियों के बारे मे दिलचस्प जानकारी देने वाली हूँ तो आपका अंदाजा एकदम......... गलत है : ) हम तो यहाँ कुछ और ही बात करने वाले है । तो तैयार है आप एक सुहाने सफ़र के लिए। खोलके इस झरोखे को हम चलते है उस पार जहाँ मेरा बचपन कर रहा है आप सभी का इंतज़ार ।


बिल्ली मौसी -[ यानी मेरी मासी] सोच रहे होंगे आप, कैसी लड़की है, अपनी मासी को बिल्ली कहती है । सब्र रखिये, इस नाम के रखने से जुडा राज़ भी आपको बतलाती हूँ ।

गर्मियों की छुट्टियों मे सब अपने ननिहाल जाते है, मैं भी जाया करती थी । वहां पर हमारी मासी मेरा मतलब बिल्ली मासी भी हुआ करती थी । वैसे हमे मासीजी अच्छी हि
लगती थी ,पर परेशानी तब होती थी जब वो हमे टोकती रहती थी "यह मत करो " वो मत करो । हमने अपने खेलने की एक ख़ास जगह चुनी थी एक लम्बा गलियारा था, वहाँ तीन -चार कमरे थे और दो कमरों के बीच एक खाली जगह हुआ करती थी , जिसे हम खूपचा कहते थे, यही हमारे खेलने की सबसे बेहतरीन जगह हुआ करती थी, कितने ही तरह के खेल खेला करते थे हम यहाँ पर जैसे -ताश के खेल, गुड्डे -गुड्डियों का खेल भी खेलते थे । गुड्डे गुड्डियों की अक्सर हम शादी रचाया करते थे और शादी मे मेहमानों की खातिरदारी करने उन्हें जलपान कराने के लिए हम मम्मी से चवन्नी -अठन्नी माँगा करते थे ताकि हम मसालेवाली तली हुई दाल ,खट्टी -मीठी गटागट की गोली और अन्य खाने -पीने की चीज़े खरीद सके जब। मम्मी हमे पैसे देने लगती तो पता नहीं कहा से मीयाऊँ आवाज़ आजाती, इस आवाज़ को आप लोग पहचान ही गए होंगे,जी हां बिलकुल ठीक पहचाना ये आवाज़ और किसी की नहीं हमारी मौसीजी की हुआ करती थी, वो आके मम्मी से कहती "यान टाबरा ने पैसा नहीं देना चाहे,टाबरा बिगड़ जासी आदता कोणी बिगाड़नि । फिर क्या था मम्मी हमे पैसे नहीं देती क्यूंकि उनके लिए बड़ी बहिन की आज्ञा तो सुप्रीम कमांड हुआ करती थी । हमारी आशाओं पर बिल्ली मौसी पानी फेर दिया करती थी । हम सब बच्चे मिलकर कोंफ्रेंस किया करते थे अपनी वही पसंदीदा जगह पर यानी खुपचे मे । जी भरकर मौसी की बुराइयां करते थे एक जन कहता "क्या समझती है मौसी अपने आपको जब देखो तब ..... फिर कोई कहता "कभी -कभार पैसे मांगने से बच्चे बिगड़ जाते है क्या .....इत्यादि इत्यादि । मेरी एक मौसेरी बहन जिन्हें दुसरो को अलग -अलग नाम देने मे महारथ हासिल थी उन्होंने कहा "मौसीजी तो हर वक़्त हमारा पीछा करती रहती है ,ऐसा लगता है जैसे की दो जलती घूरती आँखे हमारे साथ -साथ चलती रहती है एकदम बिल्ली की तरह "। उनके मुहँ से यह शब्द निकले और हम सब बच्चो ने मिलकर ऊंचे स्वर मे यह उच्चारण किया बिल्लीमौसीयाये नमह और उस दिन हमने हमारी मौसी का नामकरण कर दिया और तभी से उनका नाम बिल्ली मौसी पड़ गया ।

आज इतने साल बीत गये उस बात को । वही बाते जो बचपन मे चिढ पैदा करती थी,आज एकदम सही लगती है। लगता है मौसीजी कुछ गलत नहीं कहती थी ।

Tuesday, June 1, 2010

नानी की पोटली से [भूली -बिसरी एक कहानी ]

...लो मैं फिर आगई हूं, सुनाने आप सभी को एक कहानी । अरे, ये मैं क्या देख रही हूं, सब बड़े व्यस्त लग रहे है, कोई के हाथ मे चाय की प्याली, कोई के हाथ मे coffee का मग है, कोई लगा है पानी पीने। चलिए जल्दी -जल्दी अपना काम ख़त्म करिए। और हा, जो लोग चश्मा लगाते हो, वो जाइए और अपना चश्मा ढूंढ़ कर लाइए।
यह हुई न बात, अब लग रहा है की, सब लोग बड़े उत्साह से कहानी सुनने को तैयार है ।
आज की कहानी है - चलिए आज एक काम करते है, कहानी सुनने के बाद जो शीर्षक आप इस कहानी को देना चाहे, अपनी -अपनी राय मुझे बतलाये, और जिसका शीर्षक ज्यादा उपयुक्त होगा वही इस कहानी का शीर्षक होगा।
तो शुरू होती है अपनी कहानी
जंगल के बाहर एक छोटी सी बस्ती थी। उसी बस्ती मे मोहन अपनी विधवा बूढी माँ के साथ रहता था । मोहन की माँ लोगो के कपडे सिलकर अपना और अपने बेटे का भरण -पोषण किया करती थी । उस बूढी माँ का एक ही सपना था की मोहन भी औरो की तरह पढलिख जाए, उसे किसी अच्छी जगह काम मिल जाए, दिन -रात माई यही सपना देखा करती।
एक दिन जब माई रसोई मे काम कर रही थी, उसे किसी के सुबकने की आवाज़ सुनाई दी । वो हडबडाकर बाहर निकली तो क्या देखती है की उसके जिगर का टुकड़ा, उसका लाल मोहन चारपाई पर बैठा रो रहा था । माई ने आकर उसके सर पर हाथ फिराते हुए पूछा "क्या बात है बेटा,तू क्यूँ रोता है"? तब मोहन ने कहा "माई मैं आज से पाठशाला नहीं जाउंगा । यह सुनकर माई की आँखों के आगे अँधेरा छा गया, ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे आसमान से सीधा जमीन पर पटक दिया हो। मगर अपने मन को शांत रख कर उसने अपने बेटे से पाठशाला ना जाने का कारण पूछा । मोहन कहने लगा "पाठशाला से लौटते वक़्त शाम होने लगती हैं और शाम ढलते ही जंगली जानवरों के शोर से मुझे बड़ा भय लगता है, पाठशाला से घर तक आने का और कोई रास्ता नहीं है । माई ने लाख समझाने की कोशिश की पर मोहन नहीं माना ।
रात भर माई चिंता मैं घुलती रही, अब क्या होगा, यही विचार उसके दिमाग को परेशान करता रहा। सुबह उठी तो किसी काम मे उसका मन नहीं लग रहा था। "माई भूख लगी है कुछ देना खाने को "मोहन की आवाज़ सुन कर वो जैसे -तैसे उठकर रसोई मे गयी और नाश्ता बनाने लगी। नाश्ता करके मोहन बस्ती मे ही रहने वाले एक दोस्त के घर खेलने चला गया। रसोई का काम सलटाकर माई बाहर निकली तो दीवार पर टंगी बांकेबिहारी की तस्वीर को देख उसकी आँखों मे आंसू आ गए मन ही मन प्रभु से कहने लगी " यह क्या किया भगवन तुने,मुझ गरीब बुढिया की क्यों परिक्षा लेते हो"। ऐसा विचार करते -करते वो चारपाई पर आकर लेट गयी। दो पल के लिए आँख अभी लगी ही थी की, किसी की पुकार सुनकर वो जाग गयी , बाहर आकर देखा तो सामने चोदह -पन्द्रह बरस का बालक खडा था । घुंघराले केश, साँवली सूरत, केशरिया कुर्ता, सफ़ेद धोती, हाथ मे एक छड़ी। माई तो उस मोहिनी सूरत को देखती रह गयी । "बेटा कौन हो तुम?,कहाँ से आये हो ?। तब उस बालक ने बताया मेरा नाम गोपाल हैं ,मुझे सावित्री चाची ने भेजा हैं फिर उसने आगे कहना शुरू किया "चाची बता रही थी की मोहन को पाठशाला से लौटते वक़्त जंगली जानवरों की आवाज़ से डर लगता हैं ,उन्होंने मुझसे कहा हैं की मैं मोहन को पाठशाला से हर दिन घर तक छोड़ दिया करू । अब आप मोहन से कहना बिल्कुल भी न डरे, उसके गोपाल भैय्या उसे घर तक छोड़ दिया करेंगे। "पर बेटा तुम सावित्री के कौन लगते हो" माई ने पूछा। पूछने पर पता चला की वो सावित्री के दूर का रिश्तेदार हैं । "भला हो सावित्री का, जो उसने मेरी परेशानी को समझा और तुम्हे मेरी मदद के लिए भेज दिया,मैं आज ही उससे मिलकर उसका शुक्रियदा करुँगी"माई ने कहा । "चाची उसके लिए तुम्हे थोडा इंतज़ार करना पड़ेगा क्यूंकि सावित्री चाची तो आज ही तीर्थयात्रा के लिए निकल गयी हैं" इतना कहकर गोपाल चला गया । जब शाम को मोहन घर लौटा तो माई ने सारी बात बतायी, यह सुनकर वो ख़ुशी से उछल पडा। अब हर दिन का यह नियम बन गया था,जंगल के छोर पर आकर वो आवाज़ लगाता "गोपाल भैय्या ,गोपाल भैय्या और गोपाल भैय्या सामने हाज़िर ।
एक दिन पाठशाला मे खीर बनाने की प्रतियोगिता थी और मास्टरजी ने सबको दूध लाने को कहा। उसकी कक्षा मे सभी संपन्न परिवार के बच्चे थे, दूध लाना उनके लिए कोई बड़ी बात न थी। मोहन ने माई से कहा "माई मूझे भी दूध चाहिए"। माई कहने लगी "बेटा मैं कहा से लाऊ,घर मे खाने को पूरा नहीं पड़ता । मोहन उदास हो गया और घर के एक कोने मे जाकर बैठ गया। अगले दिन वो अनमना सा हो पाठशाला के लिए निकला, जंगल के किनारे पहुचा तो देखता है सामने गोपाल भैय्या खड़े है। भैय्या के हाथ मे मिटटी का कुल्हड़ था उसे देते हुए कहने लगे "ले, आज तेरी पाठशाला मे खीर बनाने की प्रतियोगिता है न, यह कुल्हड़ भर दूध ले जा। कुल्हड़ भर दूध देख मोहन को ग़ुस्सा आ गया कहने लगा "आप भी मेरे से मसखरी करते हे,क्या पूरी कक्षा के बीच मेरा मज़ाक उड़वाओगे"। "नाराज़ मत हो लेके तो जा यह कहकर उन्होंने दूध से भरा कुल्हड़ मोहन के हाथ थमा दिया और चले गए।
पाठशाला पहूच कर वो देखता हे सभी बच्चे कनस्तर भर दूध लाये हे और वो कुल्हड़ भर दूध । गुरूजी सभी बच्चे के दूध के कनस्तरो को एक बड़े से पतीले मे खाली करवा रहे थे। "गुरूजी मेरा लाया हुआ दूध भी पतीले मे खाली कर लो "वो कहने लगा । गुरूजी ने उसके कुल्हड़ भर दूध की और देखा और चिढ कर कहा "जाओ उस पतीले मे खाली कर दो । मोहन ने दूध गुरूजी के बताये पतीले मे खाली कर दिया। "गुरूजी पतीला पूरा भर गया, अब यह दूध कहाँ खाली करू "उसने कहा । गुरूजी अचरज मे पड़ गए,कुल्हड़ भर दूध मे पतीला किस तरह भर गया। फिर भी गुरूजी ने कहा " जाओ दूसरे पतीले मे डाल दो। यह क्या दूसरा पतीला भी भर गया, ऐसा करते -करते वहां रखे सभी पतीले भर गए,मगर कुल्हड़ का दूध ख़त्म न होता था ।पूरी पाठशाला मे मोहन के लाये हुए दूध की चर्चा होने लगी।
गुरूजी खुश होने के बजाय क्रोधित हो गए, मोहन के कान को मरोड़कर कहाँ "बता यह दूध कहा से लाया,क्या जादू -टोना किया हे इस दूध मे, हम सभी को मारना चाहता था। तडाक करके एक तमाचा मोहन के गाल पर रसीद दिया। मोहन ने कहा "गुरूजी मूझे मत मारो यह दूध तो मूझे मेरे गोपाल भैय्या ने दिया हे"। "चल मिला हमको तेरे गोपाल भैया से "ऐसा कहते हुए गुरूजी मोहन को घिसिटते हुए ले जाने लगे । आगे -आगे गुरूजी और मोहन, पीछे -पीछे पूरी पाठशाला । जंगल के उस किनारे पर पहुचे जहाँ मोहन गोपाल भैय्या से मिला करता था । "बूला अपने गोपाल भैय्या को"। उसने आवाज़ लगाई गोपाल भैय्या , गोपाल भैय्या कहा हो तुम देखो सब आये हे आप से मिलने । जो गोपाल भैय्या मोहन की एक आवाज़ सुनकर आ जाया करते थे,आज इतना पुकारने पर भी नहीं आ रहे थे । मोहन का रो -रो कर बुरा हाल हो रहा था। अचानक सामने से एक आलोकिक प्रकाश उठा। उस तेज दिव्य ज्योति के आगे सबकी आँखे चुंधिया गयी । मोहन ख़ुशी से नाच उठा "देखो गुरूजी वो खड़े मेरे गोपाल भैय्या और उसने उस प्रकाश की और इशारा किया ।
अब गुरूजी को समझते देर न लगी यह कोई और नहीं बांकेबिहारी, बंशीधर ,भगवान् श्री कृष्ण है। मोहन आज तेरी वजह से हमें प्रभु के दर्शन हुए। ऐसा कहते हुए गुरूजी की आँखों में से अश्रु बहने लगे । " कभी निर्बल पर अत्याचार मत करो, मैं हमेशा उनका साथ देता हू जो दिल के साफ़ होते है,छल-कपट से जो दूर रहते है, जो दुसरो की परवाह करते है, अगर मूझे पाना चाहते हो तो मेरे बताये रास्ते पर चलो इतना कहकर प्रभु गायब हो गए । एक बार फिर गुरूजी ने मोहन से माफ़ी मांगी और उसे अपने गले से लगा लिया ।

Tuesday, May 18, 2010

नानी की पोटली से [ भूली बिसरी एक कहानी ]

जब छोटी थी, तो कहानियां सुनने का बहुत शोक था। शोक तो अभी भी है, लेकिन अब नानी नहीं है जो मुझे ढेर सारी कहानियाँ सुनाया करती थी । नानी की पोटली मे कहानियों का अम्बार रहता था। कभी वो मुझे राजा हरिश्चंद्र की तो कभी मोरध्वज की तो कभी धार्मिक कथाये - जैसे सूरज भगवान् की, कभी गणेश भगवान् की तो कभी किसी अन्य देवी देवताओ की कहानियाँ सुनाया करती थी । नानी कि कहानियाँ विशाल महासागर के गर्भ मे छुपे वो दुर्लभ मोती है , एक अनमोल खज़ाना है । चलिए ज्यादा वक्त न लेते हुए आपको नानी के द्वारा सुनाई हुई एक कहानी सुनती हूँ ।
कहानी का शीर्षक है : सोना बाई

बहुत साल पहले कि बात है, एक नगर मे सात भाई रहा करते थे । उन सात भाइयों कि एक बहन थी जिसका नाम सोना बाई था । जैसा नाम वैसा ही रूप, सुनहरे बाल, कंचन काया ,बोली इतनी मीठी की सुनने वाला सुनता ही रहे । अपने माता -पिता और भाइयों की लाडली थी सोना बाई ।

धीरे -धीरे वक़्त बीतने लगा , समय पंख लगा कर उड़ा जा रहा था । सोनाबाई अब ११ वर्ष कि हो रही थी। सातो भाइयों का विवाह हो चूका था । सातो भाई अपनी -अपनी पत्नियों के साथ अलग -अलग घरो मे रहने लगे थे । सोनाबाई के लिए भाइयों के दुलार और प्यार मे कोई कमी नहीं आई थी । भाइयों का यह प्यार सोनाबाई के लिए मुसीबत का कारण बन जाएगा यह उसने कभी सोचा न था । दरअसल भाभियों को भाइयों का सोनाबाई के प्रति स्नेह डाह यानी द्वेष का कारण बन गयी थी। भाभियाँ सोचती किसी तरह सोनाबाई नाम का काँटा उनके जिंदगी से निकल जाए । और एक दिन उन्हें यह मौक़ा मिल भी गया ।

एक दिन सोनाबाई अपनी भाभियों के साथ जंगल मे मिट्टी खोदने गयी । जिस जगह से सोनाबाई मिट्टी खोदती वहां से हीरे -मोती , सोना -चांदी निकलता । भाभियों ने जब यह सब देखा तो सोनाबाई से बोली "बाईसाब थे अठे आओ -यानी कि इधर आओ , आप यहाँ मिट्टी खोदो। सोनाबाई उनके मन मे आये लालच को समझ ना सकी और उनकी बतायी जगह से मिट्टी खोदने लगी । जहाँ सोनाबाई पहले मिट्टी खोद रही थी,जब उन्होंने उस जगह कि मिट्टी को जाकर छुआ तो, उस मिट्टी से निकले हीरे-मोती , सोना-चांदी फिर मिट्टी मे परिवर्तित हो गए। हद तो तब हो गयी जहाँ पहले वे मिट्टी खोद रही थी , वो जगह सोनाबाई के हाथ का स्पर्श पाते ही फिर से हीरे -मोती, सोना-चांदी उगलने लगी । "आज तो सोनाबाई का हिसाब कर ही देना चाहिए" भाभियों ने आपस मे कहा। और अपनी योजना के मुताबिक़ उसे जंगल मे छोड़कर चली आई । घर आकर वे सब छाती पीट -पीटकर रोने लगी और कहने लगी "हाय हमारी सोना को तो जंगली जानवर उठा कर ले गया"। भाइयों ने कहा कि " हमें उस जगह पर ले चलो जहाँ यह घटना हुई है"। यह सुनकर वे सब घबरा गयी बोली "आपको क्या लगता है, हमने पीछा ना किया होगा, अरे बहुत बड़ा जंगली जानवर था और वो हमारी सोना को जंगल के भीतर बहुत गहरे ले गया है, अब कुछ फायदा नहीं वहां जाने का" । माँ -बाप बेटी के गम मे बेसुध हो गए थे। भाइयों को लगा उनके शरीर से आत्मा निकल गयी है।

इधर जंगल मे जब सोनाबाई ने देखा की उसकी भाभियों का कही कोई अता -पता नहीं है तो वो बिलख -बिलख कर रोने लगी। सूरज ढलने को था , धीरे -धीरे शाम गहरा रही थी । 'अलख-निरंजन ' की आवाज़ लगता हुआ एक साधू -बाबा निकला । "क्या हुआ बेटी तुम क्यों रो रही हो "बाबा ने पूछा । फिर सोनाबाई ने अपनी आप-बीती उस बाबा को बताई । साधू ने जब टोकरी पर नज़र डाली तो उसकी आँखे चुंधिया गयी । वो बाबा साधू के रूप मे एक पाखंडी था । वो सोनाबाई को बहला -फुसलाकर अपने घर ले आया ।
उसने सोनाबाई के सुनहरे बालो को कटवा दिया और लडको जैसे कपडे पहना दिए। सोनाबाई को घर से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी । साधू रोज़ नगर जाता और भिक्षा मांग कर लाता, खुद भी खाता सोनाबाई को भी देता । सोनाबाई हर वक़्त उस कैद से निकल जाने का रास्ता खोजा करती ।

एक दिन साधू बीमार पड़ गया । वो ऐसी हालत मे नहीं था कि भिक्षा मांगने जा सके ।" मैं तो जा नहीं सकता अब भोजन की व्यवस्था किस तरह से होगी" उसने कहा। आप चिंता मत करो मैं चली जाती हूँ भिक्षा मांगने । ऐसा कहकर सोनाबाई चली गयी । रास्ते मे एक राहगीर से नगर का रास्ता पूछा और उसके बताये रास्ते पर चलते -चलते नगर पहुच गयी । सोनाबाई की यादाश्त बड़ी तेज़ थी, उसे अपने सभी भाइयों के घर का रास्ता पता था । वो सबसे पहले सबसे बड़े भाई के घर गयी और वहां जाकर उसने यह पंक्तिया गायी। सात भाई बीच सोनाबाई बेटी, मोतीडा बीनता, जोगीड़ा ने पकड़ा
,माई माई भिक्षा दे । भाई ने जब यह आवाज़ सुनी तो तुरंत पहचान लिया अरे !, ये तो मेरी लाडली बहन सोना कि आवाज़ है। भाभी ने बहुत रोकने की कोशिश की पर अब भाई कहाँ रुकने वाला था । उसने आवाज़ लगा कर अपनी बहन को ऊपर बुला लिया । दोनों भाई -बहन गले लगकर बहुत रोये । बाकी भाइयों को और माता -पिता को सोनाबाई के मिलने का समाचार मिला वो दौड़े दौड़े आये । जब भाइयों को अपनी पत्नियों कि असलियत पता चली तो सबने अपनी पत्नियों को छोड़ने का फैसला कर लिया। लेकिन सोनाबाई ने अपने भाइयों को बहुत समझाया तो वो सब कहने लगे कि एक शर्त पर अपनी पत्नियों को माफ़ करेंगे कि उन सभी को सोनाबाई के पैरो मे गिरकर क्षमा मांगनी पड़ेगी । सभी ने सोनाबाई से माफ़ी मांगी।एक बार फिर वो सब ख़ुशी -ख़ुशी रहने लगे ।

Wednesday, May 12, 2010

हमारी टीचर इंदिरा [ स्कूल के दिन ]

स्कूल के दिन अक्सर सुहाने होते है, उनसे जूडी यादें कभी नहीं भुलाई जाती । एक ऐसा ही स्कूल के दिनों से जूडा किस्सा है । इस किस्से की मुख्य पात्र हमारी अंग्रेजी की टीचर इंदिरा जी है ।
विवरण :
उम्र :३५ से ४० के बीच ।
रंग : गेहूँआ।
कद: सामान्य
अधिक विवरण :
आँखों पर मोटी फ्रेम का चश्मा, ठुड्डी पर एक कला मस्सा, चोटी बालों की ढीली गुथी हुई जिस पर कभी-कभार फूल लगा होता था । चेहरे के भाव गंभीर मुस्कान भूले -भटके ही उनके होठों पर आया करती थी। पहरावा सादा हलके रंगों की साडी पहना करती थी।
तीसरा पीरियड अंग्रेजी का होता था । जब पहली बार टीचर कक्षा मे आई तो हम सब विद्यार्थियों के साथ उनका व्यहवार सामान्य था । उन्होंने अंग्रेजी की क्लास ली और चली गयी । कुछ समय तक सब ठीक चला । पर अचानक एक दिन .....
हम ने देखा टीचर ने जैसे ही कक्षा मे प्रवेश किया उनका मूड पूरी तरह से बदला हुआ था बेहद गुस्से मे थी । क्लास मे आते ही उन्होंने जो हमारी क्लास ली इतना लताड़ा हमको क्या बताये । सभी विद्यार्थी हक्के -बक्के से खड़े थे, एक दुसरे का मूंह ताक रहे थे । मैं सबसे आगे की बेंच पर बैठा करती थी तो और ज्यादा टीचर की नज़रों के सामने थी । ४५ मिनेट के पीरियड मे २० से २५ मिनेट तो डाटने में ही निकाल दिए । हमने सोचा शायद कोई वजह रही होगी।
आप लोग सोच रहे होंगे,टीचर का हक़ होता है अपने विद्यार्थियों की गलतियों को सुधारना , यह बात मैं भी मानती हूँ । लेकिन आप लोग बताइये, यह क्रम लगातार लम्बे समय तक चलता रहे तो क्या हो । हमेशा उनके लेक्चर मे यह शब्द बार बार दोहराए जाते थे जैसे की "यह कक्षा मे बिलकुल भी अनुशाशन नहीं है, तुमसे अच्छे तो छोटी क्लास के स्टुडेंट्स होते है, तुमसे कुछ भी कहना सर फोड़ने के बराबर है, अगर गेंद को दीवार पर फेंको तो हमारी तरफ ही पलट कर आती है .......... इत्यादि ... इत्यादि ....इत्यादि ।
मुझे समझ ही नहीं आता था कारण । जैसे ही सेकेण्ड पीरियड समाप्त होने की घंटी बजती थी । मेरे हाथ कांपने लगते थे आज जाने क्या हो ....
मैं अक्सर सोचा करती थी टीचर की नाराजगी की वजह। किस स्टुडेंट की वजह से उनका पारा चढ़ता था, कौन है वो स्टुडेंट ? थोड़े समय बाद टीचर का दूसरी स्कूल मे तबादला हो गया । हम स्टुडेंट्स के लिए और इंदिरा टीचर दोनों के लिए राहत की बात थी ।
लेकिन टीचर की नाराजगी की वजह आज भी मेरे लिए कभी न सुलझाने वाली एक पहेली है ।