Thursday, August 29, 2013

yatra

वो  ज़िन्दगी  की  सीढियाँ , चढ़ता  रहा, और  उम्र  की,  उतरता  रहा, और  हर  सीढ़ी  पर  अपने  निशां  छोड़ता  रहा। आज  वही  जर -जर   काया  उम्र  की  अंतिम  पायदान  पर  बैठ  ज़िन्दगी  का  विश्लेषण कर  रहा  था।
वक़्त  ने  उसके  होने  पर  न  जाने  कब  से  धुल  डाल  दी  थी।

उस  कमरे  में  न  जाने  कब  से  वो  तन्हा  जीवन  जी  रहा  था।  अपने  वजूद  पर  पड़ी  उस  धुल  को  झटक  देना  चाहता  था।  दिखा  देना  चाहता  था  वो  उन  लोगों  को  की  वो  भी  इस  संसार  का  हिस्सा  हैं,   खुदा  की बनी  इस  कायनात  पर  उसका  भी  अपना  हक  हैं . उसकी  आत्मा  चीख -चीख  कर  कह  रही  थी; मगर   ये  आर्तनाद  उसके  अलावा  कोई  और  सुनने  वाला  नहीं  था।  चारो  तरफ  बदलाव  का  शोर  हैं।
बदलते  परिवेश  में   रिश्तो  के  मतलब  भी  बदल  गए।  रिश्तों  के  साथ -साथ  इस  कमरे  की  काया  भी बदल  गयी  थी। दीवारों  के  रंग  बदरंग  हो  गए  और  उससे  परते  गिरने  लगी..... उन  बदलती  दीवारों  में  जीवन  की  सच्चाई   नज़र  आने  लगी।  अव्यवस्थित  कमरा   जीवन  में  फैले  बिखराव  की  खामोश दास्ताँ  सुना  रहा  था।

शाम  ढल  रही. थी … पास  के  ही  कमरे   से  गाने -बजाने , हँसी  मजाक  की  आवाज़े आ  रही  थी।  एक  ख्याल  दीमाग  में  आया, की  ये  जवानी  की  लहर,जीवन  में  एक  ज्वार  की  तरह   उठती  हैं.... जब  तक  इसका  उफान  रहता  हैं.... अपनी  आगोश में  सब  कुछ  समेटना  चाहता  हैं ; और  जब  इसका  उन्माद  थमता  हैं  तो  पीछे  कुछ  ऐसी  निशानियाँ  छोड़  जाती  हैं.... जो  जीवन  भर  पीछा  करती  हैं।  ये  सब  मेरा  ही  किया  हुआ  कर्म  हैं सोचने  लगा  वो।   रात  फैलती   रही  और  एक -एक  कतरा  बन  उसके दिल  के  भीतर  रिसती  रही; भीतर  के  अवसाद  को  बढ़ाती  रही।  काश !  ये  रात  मुट्ठी  में  बंद  रेत  की  तरह फिसल  जाती; वक़्त  ये  बीत  जाता।  इन  सब  विचारों  ने  उसकी  साँसों  को  दबाना  शुरू  कर  दिया, और  साँसे  छटपटाती  रही ; संघर्ष  करती  रही.... कुछ  और  पल ….  मिल    जाए  इस  जीवन  में।  इंसानी  फितरत  भी  बड़ी अजीब  हैं... जिंदगी  के  प्रति  मोह  को  छोड़  नहीं  पाता।  मगर  नियति  और  चाहत  में  बड़ा  फर्क  हैं; और  उस  अंतिम  साँस  ने ' मौत'  नाम  की  इस   नियति  को  गले  लगा  लिया।

अपने  पार्थिव  शारीर  को उसकी   रूह   करीब  से  देख  रही  थी।  आज  उसे  अपनी  मुर्खता  पर  हँसी  आ  रही  थी।  इस  मिटटी  की  काया   से  इतना  प्यार,  इसके  होने  से  इतना  मोह, इसके  चले  जाने  से  इतना  क्षोभ।  खुद  वो  अपनी  मौत  पर  हँसता  और  रोता  भी; रोना  इस  बात  का  जिन  अपनों  के  लिए  पुरी  ज़िन्दगी  लगायी  वो  उसके  होने  पर  सवाल  करते  थे; और  हँसी  इस  बात  की,  की  ये  मोड़  तो  उनके  जीवन  में  भी  आना  हैं, इस  सच्चाई  से  वो  अनभिज्ञ  क्यूँ   हैं , एक  आह  लेते  हुए  उसने  कहा।  और  फिर  जाने  को  हुआ ;  तभी  एक  ख्याल  उसके  मन  में  आया, जब  जीते  जी  इतने  तमाशे  देखे।  तो  मरने  के  बाद  का  अंतिम  तमाशा  देखा  जाए।  मगर  अभी  दिन  निकलने   में  कुछ  घंटे  बाकी  हैं, चलो  थोडा  बाहर  टहल  के  आया  जाए,  कितने  दिन  हो  गए   बाहर  निकले।  और  वो  निकल  पड़ा  बाहर  की  ओर।

सड़क  के  किनारे - किनारे  चलता  रहा।  बाहर  की  खुली  हवा  ने  कुम्हलायी  हुई  रूह  को  एक  नयी  ताज़गी  दे  दी।  उसमे  फिर  से  एक  नया  ज़ोश  आ  गया।  सोच  ही  रहा  था   की  कहाँ  जाया  जाए?
अचानक  पास  के  एक  पेड़  की  शाख  से  बंधे  झूले  में  सोये  उस  मासूम  को  देख  अपना  बचपन  याद  हो  आया  उसे।  चलो  उस  गाँव  में  बसे  उस  घर  को  जाते -जाते  अंतिम  बार  अलविदा  कह  दे, जहाँ  पहली  बार  आँख  खोली  थी। और  पलक  झपकते  हुए  वो  गाँव  की  सीमा  पर  था;सब  कुछ  बदला -बदला  सा  था, मगर  नहीं  बदला  तो  वो  पुराना  बरगद  का  पेड़ जो  गाँव  की  सीमा  पर  था।  कुछ  पल  इसके  नीचे  बैठ  गया  वो।  शाखाओं  से  निकलती  हुई  उन  जड़ो  को  छुआ,  दिल  करा  फिर  बचपन  की  तरह  इन  शाखाओं  पर  झूल  जाऊं मगर  कही  कोई  देख  न  ले... अचानक  वो  मुस्कुराने  लगा, वो  तो  अब  इस  दुनिया  का  हिस्सा  ही  नहीं  हैं .. तो  किसी  को  भला  क्या  दिखूंगा; जब  था  तो  कौन  सा  किसी  ने  देखा  था।  थोड़ी  देर  तक  झूलता  रहा  उन  जड़ो  को  पकड़कर  निर्भीक  हो  कर...   जिन  अपनों  ने  हाथ  झटक  लिए  थे, इन  जड़ो  ने  उसके  हाथ  मजबूती  से  थाम  लिए  थे। देर  तक .... वो अपने  घर  को  तलाशता  रहा  और  घर  भी  मिला  तो  ऐसी  अवस्था  में  जिसे  घर  नहीं  खण्डहर  कहना  ज्यादा  उपयुक्त  होता ।  उसका  दिल  द्रवित हो  उठा  फिर  भी  वो  उन  अवशेषों  में  बचपन  की  यादों  को  सहेजता  रहा।  गाँव  के   हर  कोने -कोने  वो  भटकता  रहा मगर  जिस  अपनेपन  की  तलाश  वो  सारी  उम्र  करता  रहा ,मरने  के  बाद  भी  रूह  बन  वो  अपने  गाँव  में  न  पा  सका।  गाँव  के छोर  पर  वो  खड़ा था   अंतिम  विदाई  के  लिए।

बस  थोडा  समय  और  रह  गया  था  सूरज  को  निकलने  में।  हर  जगह  वो  गया  जहाँ  जीवन  के  महत्वपूर्ण  पल  बीताये  थे....  और  बार-बार  मरता  रहा;  आघात  पर  आघात  लेता  रहा।  पछताता  रहा  क्यूँ  निकला  में   एक  रात  की  सैर  करने।  क्या  देखना  था  उसे ? .... बस !!! अब  और  नहीं  सहन  होता  लौट  आया  फिर  उसी  कमरे  में।  पूरब  से  निकलता  सूरज  नए  दिन  का  सन्देश  दे  रहा  था.…  लेकिन  उसके  जीवन  का  सूर्य  तो  कुछ  घंटो  पहले  ही  अस्त  हो  चूका  था।   अपने  पार्थिव  शारीर  को  फूलों  से  सजा  देख, एक  अंतिम  फ़ास  फिर  सीने  में  गड़  गयी। 

'राम  नाम  सत्य  हैं ' इस  आवाज़  के  साथ  वो  भी  चल  पड़ा  अपनी  अंतिम  यात्रा  पर।   पंच  धातु  से  बना  शारीर  उन्ही  पंच  तत्व  में  मिल  गया।  और  वो  ज्योति  बन  इस  संसार  से  विदा  हो  गया।






Thursday, August 22, 2013

udaan

बादलों  से  कुछ  दिनो  की  लुका-छुपी के बाद, आसमान  के  एक  कोने  में, सूरज  अपनी  मौजूदगी  दर्ज  करा  रहा  था। बंद  खिड़की  की  सुराख  से  उन  किरणों  ने  अपना  रास्ता  बनाते  हुए  मनु  के  चेहरे   को  होले  से  छुआ, मनु   माँ..... माँ..... कहती  हुई  बैठ  गयी। किरणों  की  उन  छुअन ने  उसे  माँ  की याद  दिला  दी... मगर, तभी  उसे, स्मरण  हो  आया.... अब  माँ  कहाँ  वो  तो  बहुत  दूर  चली  गयी  हैं.... जहाँ  चाह  कर  भी  कोई  नहीं पहुँच  सकता। हाल  ही में  आये  केदारनाथ  के  उस  विनाशकारी  तूफ़ान  ने,  मनु  जैसे, कितने  लोगों  के  सर  से  अपनों  का साया  हमेशा  के  लिए उठा  लिया  था।  सुना  था  उसने  की  जल  जीवन  हैं, मगर  उसी  जीवनदायनी  जल  ने  असंख्यो  को  जलमग्न  कर  दिया  था।

'मनु  ओ  मनु,  कितना  सोयेगी, काम  पर  जाना  नहीं, और  चाय  नहीं  मिलेगी  आज' पिता  की  आवाज़  सुन  वो  हडबडा  कर  खाट  से  उतरी  और  रसोई  की  ओर  भागी।  चूल्हे  पर  चढ़े  उस  खोलते  हुए  पानी  से
निकलती  उस  भाप  की  तरह  उसके  सारे  ख्वाब  न  जाने  कहाँ  उड़  गए  थे।  पिता  को  चाय  और  पाव  देकर  वो  स्नान  करने  चली  गयी।  एक  वक़्त  था  जब  वो  स्नान  करते  वक़्त  साबुन  के  बुलबुलों  से  खेला  करती  थी , और  उन  पारदर्शी  बुलबुलों  में  तिरते  रंगों  को  देख सोचा  करती  थी... ये  रंग  आते  कैसे  हैं। अब  तो  वो  पल  ही  कहाँ।  जहाँ  माँ  पहले  काम  करती  थी, उन्ही  एक -दो  घरो  में  उसके  पिता  ने  उसे काम  पर  लगा  दिया  था।  हमेशा  चिड़ियाँ  की  तरह  चहचहाने  वाली मनु  चुप-चुप  सी हो  गयी  थी। जिम्मेदारियों  ने  उसे  उम्र  से  पहले  ही  परिपक्व  बना  दिया  था।  स्नान  कर  उसने  माँ  की  तस्वीर  के  आगे  अगरबत्ती  लगा  दी  और  निकल  पड़ी.… अब  उसकी  ज़िन्दगी  घडी  की  सुइयों की तरह  हो  गयी  थी।

आज  फिर  से  काम  पर  जाते  हुए  उसने  वही  गीत  सुना  जो  सड़क  पार  स्थित  स्कूल  में  सुबह  की  प्रार्थना  के  तौर  पर  गाया  जाता  था ' इतनी  शक्ति  हमें  देना  दाता, मन  का  विशवास  कमजोर  हो  न ' एक समय  था  जब  वो  भी  उन  बच्चो  के  साथ  मिल  ये  गीत  गाया  करती  थी। माँ  ने  सारी  तकलीफों का  सामना  करते  हुए.…. अपने  पति  की  नाराज़गी  को  बर्दास्त  कर  उसे  स्कूल  भेजा  था। लेकिन  माँ  के  जाने  के  बाद  उसके  बापू  ने  स्कूल  जाने  पर  रोक  लगा  दी। अब  कौन  हैं  जो  उसके  लिए  आवाज़  उठाये
ख़ामोशी  से  वो  सब  सहन  किये  जा  रही  थी.…अपने  बापू  से कुछ  भी कह  पाने  की  हिम्मत उसमे  न  थी
एक  अवर्णित  दर्द  लिए  वो  जिए  जा  रही  थी।  क्या  कभी  वो  अपने  शिक्षित  होने  का  सपना  पूरा  कर  पाएगी।

एक  दिन  ऐसे  ही  काम  से  लौटते  वक़्त, उसने  स्कूल  के  गेट  पर  एक  बुजुर्ग  महिला  को  परेशानी  की  हालत  में  देखा।  वो  सड़क  पार  कर  उनके  पास  पहुँची ' क्या  बात  हैं ? आप  इतनी  परेशान  क्यूँ  हैं ? 'उसने  पुछा।  पता  लगा  की  वो  उसी  स्कूल  में  पढने  वाले  एक  बच्चे  की  दादी  हैं  और  अपने  पोते  को  लेने  आई  हैं।  'रोज़  तो  वो  अपनी  माँ  के  साथ  ही  आता  हैं, जो  इस  स्कूल  में  टीचर  हैं , मगर  आज  वो  बीमार  होने  की  वजह  से  स्कूल  नहीं  आ  पायी  इसलिए  मुझे  आना  पड़ा' पाँच   मिनट  देर  क्या  हो  गयी आने  में.… न  जाने  कहाँ  चला  गया.… अब  क्या  करू ? उन्होंने  कहा। 
आप  घबराइए  मत,  मैं  देखती  हूँ , फिर  उसने  पूछा ' आपके  पोते  का  नाम  क्या  हैं ?
'नाम  तो  उसका  मयंक  हैं.…. मगर  मैं  उसे  बाबू  कह  के  बुलाती  हूँ' उन्होंने  बताया।
फिर  थोडा  इधर -उधर  तलाश  करने  पर मयंक  उन्हें  एक  खोमचे  वाले  के  ठेले  पर  दिखाई  पड़ा।
अपनी  दादी  को  सामने  देख  वो  घबरा  गया  और  भागने  लगा।
'अरे  बाबु  ठहर.… कहाँ  भागता  हैं  शैतान।  मगर  घुटनों  में  दर्द  की  वजह से  वो  उसके  पीछे  दौड़  नहीं  पायी।
मनु  उसके  पास  गयी   और  उसका  हाथ  पकड़कर  उसे  उसके  दादी  के  पास  ले  गयी।
क्यूँ  रे ! बाहर  का  खायेगा  बीमार  हो  जाएगा '  उसका  कान  उमेठते  हुए  कहा।
और  लगभग  घसीटते हुए  उसे  ले  गयी. और  मनु  उन्हें  ज़ाते   हुए  देखती  रही।

दिन  इसी  तरह  सरकते  गए, एक  दिन  ऐसे  ही  काम  से  लौटते  हुए  उसे  पीछे  से  किसी  ने  पुकारा
'बिटिया  ओ  बिटिया' पीछे  मुड़  कर  उसने  देखा  तो  मयंक  की  दादी  थी।
माफ़  करना  बिटिया  उस  दिन  तुम्हारा  नाम  नहीं  पुछ  पायी।
'मनु  नाम  हैं  मेरा ' उसने  धीरे  से  कहा।
दादी  ने  जाना  की  किस  तरह  से  उसकी  माँ  का  देहांत  हुआ और  पिता  ने  उसे  स्कूल  भेजना  बंद  कर  दिया।  उन्हें  बड़ा  दुःख  हुआ  ये  जानके।
'क्या  मैं  आपको  दादी  माँ  कह  सकती  हूँ'? मनु  ने  सकुचाते  हुए  पुछा ।
'अरे ! ये  भी  पूछने  की  बात  हैं ' उन्होंने  हँसते  हुए  कहा।
फिर  उन्होंने  पुछा -'कहाँ  रहती  हो  तुम?'
मनु  ने  हाथ  के  इशारे  से  अपने  घर  का  रास्ता  बताया
'एक  दिन  मैं  तुम्हारे  घर  जरुर आउंगी ' इतना  कह  के  वो  अपने  घर  चली  गयी, और  मनु  भी अपने  घर लौट  आई।  रात  को  बिस्तर  पर  लेटते  वक़्त  वो  सोचने  लगी  की  दादी  कही  बापू  से  मेरे  पढ़ाई  के  विषय  में  तो  बात  करने  नहीं  आई , इस  विचार  से   उसके  शरीर  में एक  लहर  सी  दौड़ गयी, जिसमे  एक अनजान  सी   उम्मीद  और  संशय  दोनों  थे।

सुबह  उसकी  आँख  देर  से  खुली, उसने  उठ  कर  देखा  की  बापू  अभी  तक  सो  रहे  हैं।
वो  सोचने  लगी  की  वो  तो  इतनी  देर  तक  सोते  नहीं  हैं, आज  क्या  हुआ।
उसने  पास  जाकर  बापू  को  धीरे  से  छुआ,  एक  झटका  सा  लगा।
हे  भगवान! बापू  को  इतना  तेज़  बुखार। वो  घबरा  गयी  बापू .. बापू  उसने  आवाज़  लगायी
मगर  बुखार  तेज़  होने  की  वजह  से  बापू   कुछ  बोल  नहीं  पा  रहे  थे।
अब  वो  क्या  करे, किसे  बुलाये , कुछ  समझ  नहीं  आ  रहा  था  उसे।
फिर  उसे  याद  आया  की  एक  बार  स्कूल  में  टीचर  जी  ने  कहा  था  की  कैसी  भी  परिस्तिथि  आये   इंसान  को  घबराना  नहीं  चाहिए. बस  उसने  फिर  बड़े  शांत  चित  से  सोचा  तभी  पास  से  गुजरते  एक  ऑटो  वाले  को  रोका और  सारी  बात  बताई। फिर  ऑटो  वाले  की  मदद  से  अपने  बापू  को  पास  के  ही  दवाखाने  ले  गयी।  डॉक्टर  ने  मुआयना  कर  दवा  लिख  दी, और  कहा  फल  वगेरह  खिलाओ इन्हें।
अरे  मैं  फीस  कैसे  चुकाऊँगी,जल्दी  जल्दी  में  पैसे  लाना  ही  भूल  गयी।
ये  सब  सोच  ही  रही  थी  की  सामने  दादी  नज़र  आई।
दादी  मनु  को  देख  चौंक  उठी ' तुम  यहाँ  क्या  कर  रही  हो ?
'बापू  को  बुखार  हैं  उन्हें  डॉक्टर  साहब  को  दीखाने  लायी  थी ,मगर  जल्दी  जल्दी  में  बटुआ  लाना  भूल  गयी'.
'तो  इसमें  चिंता  की  क्या  बात  हैं  मैं  फीस  चूका  देती  हूँ' उन्होंने  कहा
उसे  दादी  से  पैसे  लेने  में  संकोच  हो  रहा  था.
दादी  उसके  मन  की  स्थति  को  भाँप  गयी' अरे  पगली ! दादी  भी  कहती  हैं और  संकोच  भी  करती हैं।
डॉक्टर  को  फीस  चूका  कर  और  दवाई  लेकर  वो  तीनो  घर  लौट  आये।
घर  पहुँच  कर  मनु  ने  एक  पाव  खिला  कर  बापू  को  दवाई  दे दी।
एक  आध  घंटा  बैठ  दादी  अपने  घर  लौट  गयी।

धीरे  -धीरे  बापू  की  तबियत  संभलने  लगी. और  दादी  भी  इस  बीच  आती  रही।
वो  उसके  पिता  को  अपने  तरीके  से  शिक्षा  का  महत्त्व  समझाती ।
शायद  उसके  पिता  को  भी  साक्षरता  का  महत्त्व  समझ  आ  रहा  था
'माताजी  आप  हर  दिन  कुछ  न  कुछ  लेकर  आ  जाती  हैं' बापू  ने कहा।
'मैंने  मनु  को  अपनी  पोती  माना  हैं , इस  नाते  तुम  मेरे  बेटे  हुए , तो  क्या  एक  माँ  अपने  बेटे  से  पैसे  लेगी 'उन्होंने  कहा;  अगर  कुछ  देना  ही  चाहते  हो  तो  मुझे तो, एक  चीज़  दे  द,  मेरी  पोती  को  उसके  ख्वाब  पुरे  करने  की  इज़ाज़त  दे  दो।
बापू  ने मनु  को  पुकारा ' मनु '
'क्या  हैं  बापू 'उसने  कहा
बापू  ने मनु  के  हाथो  को  अपने  हाथो  में  लेकर  कहा 'आज से ये हाथ सिर्फ  और  सिर्फ किताब  और  कलम  उठाएंगे; और  उसे  अपने  सीने  से  लगा  लिया।
मनु ,बापू  और  दादी  इन  तीनो  की  आँखों  से  ख़ुशी  के  आंसू  बह  रहे  थे।
दादी  ने  अपनी  बहु  से  बात  की और  उनकी  बहु  ने  स्कूल   वालो  से।
कुछ  दिनों  बाद  फिर  से  मनु  का  दाखिला  हो  गया।

आज  वो  घडी  आ गयी, जिसका  इंतज़ार  मनु  को  कब  से  था.
एक  नयी  सुबह,  नयी  रौशनी लिए,  बाँह  फैलाये  उसका  कर  रही  थी  इंतज़ार।
और  मनु  नयी  उड़ान  के  लिए  थी  तैयार।

Thursday, February 16, 2012

मैं थी कभी शाहरुख़ खान की दीवानी,बात ये हैं बहुत पुरानी

बात तब की हैं जब शाहरुख़ खान सिर्फ शाहरुख़ खान हुआ करते थे तब उनके साथ में 'बादशाह खान' या 'किंग खान' का टाईटल नहीं जुड़ा था। ये वो दौर था जब वो कुछ बनना चाहते थे, या यूँ कहे की मनोरंजन की दुनिया में अपना एक मुकाम हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे थे।
आज -कल हमारे पास अपने मन बहलाने के लिए कितने ही अनगिनत मनोरंजन के चेनल्स मौजूद हैं...पर मैं उस दौर की बात कर रही हूँ जब हमारे पास मनोरंजन हेतु दूरदर्शन के अलावा कोई और विकल्प उपलब्ध नहीं था सो ले देके जो एक मात्र मनोरंजन का विकल्प था और वो था दिल्ली दूरदर्शन।
बात सन 1९८८ की हैं जब दिल्ली दूरदर्शन पर 'फौजी ' नामक सीरियल शुरू हुआ। और कुछ ही दिनों मे ये सीरियल लोगो को बेहद पसंद आने लगा और इस सीरियल मे लेफ्टिनेंट अभिमन्यु राय का पात्र निभाने वाले कलाकार शाहरुख़ खान ने लोगो के दिल मैं खास जगह बना ली । हर उम्र की महिला शाहरुख़ खान की फेन थी।
हमारी कॉलोनी की महिला मण्डली जब भी किसी अवसर पर मिलती तो उनकी जुबा पर सीरियल फौजी और मिसटर खान का ही चर्चा होता था ...जैसे उनके पास बात करने के लिए कोई और विषय बचा ही नहीं हो।जब कॉलोनी की महिलाओ का ये हाल था तो मैं इस चुम्बकीय आकर्षण से कैसे बच के रह सकती थी,उस वक़्त उम्र भी कुछ ऐसी थी जहाँ ऐसा आकर्षण होना स्वाभाविक सी बात हैं । जहाँ हर रात हम ख्वाबो मैं अपने ख्वाबो के शहजादे का चित्र बनाया करते थे ..और जब देखा उन्हें तो बस एक ही गीत होठों पर आया 'उनसे मिली नज़र के मेरे होश उड़ गए'....हा....हा....हा ...सच मैं क्या दीवानापन था।
जब मैं वो सीरियल देखती तो मुझे पूरी टीवी स्क्रीन पर शाहरुख़ ही शाहरुख़ नज़र आता,बाकी और कलाकार तो मेरे लिए बोने ही थे। मैं जानती हूँ की हर पात्र का विशिष्ट स्थान होता हैं ..पर ये एक ऐसा खिचाव था जो हर पल मुझे अपनी और खिचता रहता और मुझे उस खास फौजी के अलावा कोई और नज़र ही नहीं आता था। एक बार सीरियल देखते वक़्त अचानक मेरी नज़र स्क्रीन से हटकर कमरे के दूसरी तरफ गयी तो क्या देखती हूँ मेरी मम्मी मुझे देख मंद -मंद मुस्कुरा रही हैं। मैं झेप गयी। बड़ी शर्मिंदगी भी महसूस हुई। उस वक़्त तो ऐसा लगा की ज़मीन फट जाए और मैं उसमे समा जाऊ।
एक दिन पापा के मित्र घर पर आये और उन्होंने अपनी बिटिया की शादी का निमंत्रण पत्र दिया। उनके जाने के बाद जब मैंने कार्ड खोल कर देखा तो रिसेप्शन उस दिन और उस समय का था जिस वक़्त वो सीरियल के आने का वक़्त हुआ करता था। मैंने मम्मी से कहा "मैं रिसेप्शन मे नहीं जाउंगी"। बहुत से बहाने बनाये ...पर मेरा कोई बहाना नहीं चला और मुझे रिसेप्शन मैं जाना पड़ा।
..खेर रिसेप्शन मे तो मैं चली गयी लेकिन मेरी नज़र बार -बार कलाई पर बंधी घडी पर जाती रही ...टिक ...टिक ....टिक ..चलती जाए घडी और थोड़ी देर मे किसी ने आकर कहा "आप लोग भोजन कर लीजिये" मैंने घडी मे देखा ज्यादा वक़्त नहीं बचा था सीरियल के शुरू होने मे।मेरे सीरियल देखने का उतावलापन हमारे पड़ोस मैं रहने वाली दीदी समझ गयी उन्होंने कहा "फटाफट खाना खा ले हम सीरियल के वक़्त तक पहुच जायेंगे।कही वो भी मेरी तरह शाहरुख़ खान की दीवानी तो नहीं थी पर उस वक़्त इस बात पर गौर करने का वक़्त नहीं था की कौन दीवाना है और कौन नहीं मेरे लिए तो सबसे मुख्य बात थी की खाना खा के घर पहुचना।
खाना खा के हम जैसे ही घर तक पहुचे तो दीदी ने कहा "जल्दी से चाबी दे ताला खोलती हूँ। मैंने कहा "मेरे पास तो चाबी हैं ही नहीं मुझे लगा की आपने अपने घर की चाबी ले ली होगी इसलिए मैंने अपनी मम्मी से चाबी ली ही नहीं । पीछे मुड़ कर देखा शायद दीदी के मम्मी पापा या मेरे मम्मी पापा आते हुए दिखाई दे पर दूर -दूर तक कोई नज़र नहीं आया । अब क्या करे ..तभी दीदी ने कहा "देख वो सामने वाली बिल्डिंग मे नीचे ग्राउंड फ्लोर के घर की बत्ती जल रही हैं शायद वो लोग घर में है .घर मैं आंटी जी हुई तो हम उनके घर बैठकर सीरियल देख सकते हैं । वो आंटी जी से पहचान तो थी पर इतनी भी नहीं की उनके घर मे बैठकर सीरियल देखा जाए। बड़ा अजीब सा लग रहा था लेकिन शाहरुख़ खान को देखने की चाह इतनी ज्यादा थी की हमने आंटी जी के घर की डोर बेल बजा दी। जब दरवाजा खुला तो हमने सकुचाते हुए आंटी जी से कहा "क्या हम आपके यहाँ बैठकर टीवी देख सकते हैं आपको कोई परेशानी तो नहीं होगी । उन्होंने हँसते हुए कहा अरे !परेशानी कैसी आजाओ तुम लोग ।
तो देखा आपने इस तरह मैंने अपने पसंदीदा सीरियल या अपने शाहरुख़ को देखने की चाह पूरी की
धीरे -धीरे वक़्त के साथ यह दीवानापन, बावलापन इत्यादि,इत्यादि जाता रहा।
अभी जभी किसी को यह कहते हुए सुनती हूँ की वो फलां हीरो या फलां हिरोइन के फेन हैं ..तो मुझे
बड़ा अजीब लगता हैं ..और जब देखती हूँ की कोई तो अपने पसंदीदा कलाकारों के लिए मंदिर तक
बना देते हैं .....तो मैं हँसते हुए कहती हूँ "पगला गए हैं सब "।

Monday, November 1, 2010

अमर अकबर एन्थोनी

थोड़े दिन पहले की बात हैं मैं केबल पर 'अमर अकबर एन्थोनी' फिल्म देख रही थी,इससे पहले भी यह फिल्म टी.वी पर देख चुकी हूँ, होता हैं न कभी -कभी किसी फिल्म को देखकर उसे बार -बार देखने का मन करता हैं। तो कभी कुछ खास दृश्य देखने के लिए भी हम कोई फिल्म दुबारा भी देख लेते हैं ।

फिल्म चल रही थी, और मेरा मन खो गया एक पुरानी स्मृति मैं, जो इस फिल्म से जुडी थी। चेहरे पर जो मुस्कान छोड़ जाए वो बात बचपन के अलावा कोई और हो ही नहीं सकती। तो फिर देर किस बात की हैं,आप सब हैं, मैं हूँ और मेरी वो खुबसूरत याद।
बात तब की हैं जब हम आन्ध्र-प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले मैं स्थित राजमुंदरी नामक छोटे शहर मैं रहा करते थे। उस वक़्त यहाँ इतने सिनेमा -घर नहीं हुआ करते थे और जो थे उनमे ज्यादातर तेलुगु मूवी चला करती थी, हिंदी मूवी अगर लगी भी तो तीन -चार दिन से ज्यादा सिनेमा -घर मे नहीं टिकती थी। ..लेकिन जब 'अमर अकबर एन्थनी ' मूवी लगी तो लोग दीवाने हो गए,स्वाभाविक सी बात हैं अमिताभ बच्चन जी की जो मूवी थी, जो सिनेमा -घर हिंदी सिनेमा को लेकर उदासीन रहते थे, अचानक से जाग गए। हर शो हाउस -फुल जा रहा था।
मेरे मन मैं भी इस मूवी को देखने की इच्छा जाग उठी । अब पिताजी को सिनेमा दिखाने के लिए राज़ी करना था, जो इतना आसन तो नहीं था लेकिन इतना मुश्किल भी नहीं था। चलो किसी तरह पिताजी को मना लिया और अगले दिन सिनेमा जाना तय हो गया। मैं सारी रात ख़ुशी के मारे सो न सकी। सुबह जल्दी उठ गयी, उठते ही खिड़की के बाहर नज़र गयी, अरे!आज यह सूरज की रौशनी अलग सी क्यूँ हैं,मैंने मन ही मन सोचा अरे इसे भी तो पता हैं की आज मैं सिनेमा जो देखने जाने वाली हूँ इसलिए मेरी ख़ुशी मैं यह भी अपनी अनोखी छटा बिखेर रहा हैं। पर मन मे कही यह डर भी लग रहा था, कही मेरे इस सिनेमा देखने के कार्यक्रम मैं कोई अवरोध न आजाए, क्यूंकि पिताजी इनजीनियर थे और फैक्ट्री मैं अक्सर कोई न कोई मशीन बिगड़ जाया करती थी,और उस वजह से काफी बार बाहर जाने का प्रोग्राम रद्द करना पड़ता था। मैं भगवान् से प्राथना कर रही थी "हे भगवान् जी आज कोई अवरोध न पैदा करना, सभी मशीनों को दुरुस्त रखना।
लेकिन मेरा डर निराधार साबित हुआ और हम तय समय के अनुसार फिल्म देखने के लिए निकले पिताजी के एक मित्र सपरिवार हमारे साथ फिल्म देखने के लिए चले। सिनेमा -घर पहुचने के बाद पापा और उनके मित्र टिकेट लेने चले गए, मैं बस अपने खयालो मैं थी अब पापा टिकिट लेकर आते ही होंगे और मैं फिल्म देखूंगी ........वगैरह वगैरह । थोड़ी देर बाद पापा ने आकर बताया बेटा घर चलो टिकिट नहीं मिली। अब तो मेरा चेहरा रूआँसा हो गया, चेहरा लटककर घुटने तक पहुच गया । पापा के मित्र ने जब देखा की मैं उदास हूँ तो कहा "कोई बात नहीं बेटा फिल्म ना सही हम होटल चलते हैं । अब चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आ गयी। होटल से घर लोटे तो सभी अपने काम में व्यस्त हो गए, पर मेरे मन मैं एक ही बात थी काश के फिल्म देखने को मिल जाती। पिताजी ने आकर कहा कोई नहीं हम तीन चार दिन बाद फिर से फिल्म देखने जायेंगे ।
फिर तीन -चार दिन बाद गए वही फिल्म देखने, इस बार तीन चार परिवार और भी थे तो एक छोटी सी बस कर ली थी। लेकिन इस बार भी वही हुआ जो पिछली बार हुआ था । फिर से टिकिट नहीं मिली । मुझे बड़ी भुनभनाहट हुई । तभी किसी ने कहा अपने पास बस तो हैं ही क्यूँ न कही और घूम फिर कर आया जाए और तय हुआ चलो धोलेश्वरम चलते हैं जो राजमुंदरी के निकट ही हैं। ....हूँ धोलेश्वरम सो बार तो देख लिया पर सब गए तो हम भी चले गए । धोलेश्वरम से लौटे तो बुरी तरह से थकी हुई थी। अगले दिन स्कूल के लिए तैयार होते वक़्त सोच रही थी, अब नहीं लगता की तीसरी बार पापा फिल्म लेकर जायेंगे,बस यही सोचते -सोचते स्कूल चली गयी ।
फिर एक दो दिन बाद शाम को आफिस से घर लोटने के बाद, पापा ने कहा चलो आज फिर चलते हैं वही फिल्म देखने, जो बात होने की उम्मीद मैंने छोड़ दी थी, उस बात को होते देख आप अंदाजा लगा सकते हैं मेरे मन मैं उठती खुशियों की लहरों का । इस बार हम फिल्म का सेकेण्ड शो देखने के लिए निकले । सिनेमा -घर पहुचे पर मन मैं संशय था कही पिछली बार की तरह इस बार भी कही ...... हे भगवान् इस बार तो टिकिट मिलवा देना । पर जो होना लिखा होता हैं, वो होके रहता हैं,उसे भगवान् भी नहीं टाल सकता। जानते हैं आप लोग इतिहास दोहराया मेरा मतलब तिहराया गया क्यूंकि तीसरी बार भी टिकिट नहीं मिली । अब तो सिवाए घर लोटने के अलावा कोई और जगह घूम आने का विकल्प नहीं बचा था । हताश होकर बस लोट ही रहे थे तभी किसी ने पीछे से आवाज़ लगाई । मुडकर देखा एक अंकले पापा के पास आये और कहने लगे "मैंने इस फिल्म की टिकिट तो लेली हैं पर अब मुझे यह फिल्म नहीं देखनी हैं, आप हमारी यह टिकिट ले लीजिये। मुझे उनमे भगवान् नज़र आने लगे ।
जिसका मुझे था इंतज़ार वो घडी आगई -आगई ........और फिल्म देखने की मेरी चाह पूरी हो गयी पूरी हो गयी ,अब यह और बात हैं फिल्म का कितना हिस्सा जागते हुए और कितना सोते zzzzzz देखा ।
तो कैसा लगा आपको यह किस्सा ।



Tuesday, July 20, 2010

बिल्ली मौसी .

ऊपर दिए गए शीर्षक को देख आप सोच रहे होंगे की मैं आपको 'एनीमल प्लानेट' या फिर 'नेशनल जिओग्राफिक चैनल' की सैर को लिए जा रही हूँ और जंगली बिल्लियों के बारे मे दिलचस्प जानकारी देने वाली हूँ तो आपका अंदाजा एकदम......... गलत है : ) हम तो यहाँ कुछ और ही बात करने वाले है । तो तैयार है आप एक सुहाने सफ़र के लिए। खोलके इस झरोखे को हम चलते है उस पार जहाँ मेरा बचपन कर रहा है आप सभी का इंतज़ार ।


बिल्ली मौसी -[ यानी मेरी मासी] सोच रहे होंगे आप, कैसी लड़की है, अपनी मासी को बिल्ली कहती है । सब्र रखिये, इस नाम के रखने से जुडा राज़ भी आपको बतलाती हूँ ।

गर्मियों की छुट्टियों मे सब अपने ननिहाल जाते है, मैं भी जाया करती थी । वहां पर हमारी मासी मेरा मतलब बिल्ली मासी भी हुआ करती थी । वैसे हमे मासीजी अच्छी हि
लगती थी ,पर परेशानी तब होती थी जब वो हमे टोकती रहती थी "यह मत करो " वो मत करो । हमने अपने खेलने की एक ख़ास जगह चुनी थी एक लम्बा गलियारा था, वहाँ तीन -चार कमरे थे और दो कमरों के बीच एक खाली जगह हुआ करती थी , जिसे हम खूपचा कहते थे, यही हमारे खेलने की सबसे बेहतरीन जगह हुआ करती थी, कितने ही तरह के खेल खेला करते थे हम यहाँ पर जैसे -ताश के खेल, गुड्डे -गुड्डियों का खेल भी खेलते थे । गुड्डे गुड्डियों की अक्सर हम शादी रचाया करते थे और शादी मे मेहमानों की खातिरदारी करने उन्हें जलपान कराने के लिए हम मम्मी से चवन्नी -अठन्नी माँगा करते थे ताकि हम मसालेवाली तली हुई दाल ,खट्टी -मीठी गटागट की गोली और अन्य खाने -पीने की चीज़े खरीद सके जब। मम्मी हमे पैसे देने लगती तो पता नहीं कहा से मीयाऊँ आवाज़ आजाती, इस आवाज़ को आप लोग पहचान ही गए होंगे,जी हां बिलकुल ठीक पहचाना ये आवाज़ और किसी की नहीं हमारी मौसीजी की हुआ करती थी, वो आके मम्मी से कहती "यान टाबरा ने पैसा नहीं देना चाहे,टाबरा बिगड़ जासी आदता कोणी बिगाड़नि । फिर क्या था मम्मी हमे पैसे नहीं देती क्यूंकि उनके लिए बड़ी बहिन की आज्ञा तो सुप्रीम कमांड हुआ करती थी । हमारी आशाओं पर बिल्ली मौसी पानी फेर दिया करती थी । हम सब बच्चे मिलकर कोंफ्रेंस किया करते थे अपनी वही पसंदीदा जगह पर यानी खुपचे मे । जी भरकर मौसी की बुराइयां करते थे एक जन कहता "क्या समझती है मौसी अपने आपको जब देखो तब ..... फिर कोई कहता "कभी -कभार पैसे मांगने से बच्चे बिगड़ जाते है क्या .....इत्यादि इत्यादि । मेरी एक मौसेरी बहन जिन्हें दुसरो को अलग -अलग नाम देने मे महारथ हासिल थी उन्होंने कहा "मौसीजी तो हर वक़्त हमारा पीछा करती रहती है ,ऐसा लगता है जैसे की दो जलती घूरती आँखे हमारे साथ -साथ चलती रहती है एकदम बिल्ली की तरह "। उनके मुहँ से यह शब्द निकले और हम सब बच्चो ने मिलकर ऊंचे स्वर मे यह उच्चारण किया बिल्लीमौसीयाये नमह और उस दिन हमने हमारी मौसी का नामकरण कर दिया और तभी से उनका नाम बिल्ली मौसी पड़ गया ।

आज इतने साल बीत गये उस बात को । वही बाते जो बचपन मे चिढ पैदा करती थी,आज एकदम सही लगती है। लगता है मौसीजी कुछ गलत नहीं कहती थी ।

Tuesday, June 1, 2010

नानी की पोटली से [भूली -बिसरी एक कहानी ]

...लो मैं फिर आगई हूं, सुनाने आप सभी को एक कहानी । अरे, ये मैं क्या देख रही हूं, सब बड़े व्यस्त लग रहे है, कोई के हाथ मे चाय की प्याली, कोई के हाथ मे coffee का मग है, कोई लगा है पानी पीने। चलिए जल्दी -जल्दी अपना काम ख़त्म करिए। और हा, जो लोग चश्मा लगाते हो, वो जाइए और अपना चश्मा ढूंढ़ कर लाइए।
यह हुई न बात, अब लग रहा है की, सब लोग बड़े उत्साह से कहानी सुनने को तैयार है ।
आज की कहानी है - चलिए आज एक काम करते है, कहानी सुनने के बाद जो शीर्षक आप इस कहानी को देना चाहे, अपनी -अपनी राय मुझे बतलाये, और जिसका शीर्षक ज्यादा उपयुक्त होगा वही इस कहानी का शीर्षक होगा।
तो शुरू होती है अपनी कहानी
जंगल के बाहर एक छोटी सी बस्ती थी। उसी बस्ती मे मोहन अपनी विधवा बूढी माँ के साथ रहता था । मोहन की माँ लोगो के कपडे सिलकर अपना और अपने बेटे का भरण -पोषण किया करती थी । उस बूढी माँ का एक ही सपना था की मोहन भी औरो की तरह पढलिख जाए, उसे किसी अच्छी जगह काम मिल जाए, दिन -रात माई यही सपना देखा करती।
एक दिन जब माई रसोई मे काम कर रही थी, उसे किसी के सुबकने की आवाज़ सुनाई दी । वो हडबडाकर बाहर निकली तो क्या देखती है की उसके जिगर का टुकड़ा, उसका लाल मोहन चारपाई पर बैठा रो रहा था । माई ने आकर उसके सर पर हाथ फिराते हुए पूछा "क्या बात है बेटा,तू क्यूँ रोता है"? तब मोहन ने कहा "माई मैं आज से पाठशाला नहीं जाउंगा । यह सुनकर माई की आँखों के आगे अँधेरा छा गया, ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे आसमान से सीधा जमीन पर पटक दिया हो। मगर अपने मन को शांत रख कर उसने अपने बेटे से पाठशाला ना जाने का कारण पूछा । मोहन कहने लगा "पाठशाला से लौटते वक़्त शाम होने लगती हैं और शाम ढलते ही जंगली जानवरों के शोर से मुझे बड़ा भय लगता है, पाठशाला से घर तक आने का और कोई रास्ता नहीं है । माई ने लाख समझाने की कोशिश की पर मोहन नहीं माना ।
रात भर माई चिंता मैं घुलती रही, अब क्या होगा, यही विचार उसके दिमाग को परेशान करता रहा। सुबह उठी तो किसी काम मे उसका मन नहीं लग रहा था। "माई भूख लगी है कुछ देना खाने को "मोहन की आवाज़ सुन कर वो जैसे -तैसे उठकर रसोई मे गयी और नाश्ता बनाने लगी। नाश्ता करके मोहन बस्ती मे ही रहने वाले एक दोस्त के घर खेलने चला गया। रसोई का काम सलटाकर माई बाहर निकली तो दीवार पर टंगी बांकेबिहारी की तस्वीर को देख उसकी आँखों मे आंसू आ गए मन ही मन प्रभु से कहने लगी " यह क्या किया भगवन तुने,मुझ गरीब बुढिया की क्यों परिक्षा लेते हो"। ऐसा विचार करते -करते वो चारपाई पर आकर लेट गयी। दो पल के लिए आँख अभी लगी ही थी की, किसी की पुकार सुनकर वो जाग गयी , बाहर आकर देखा तो सामने चोदह -पन्द्रह बरस का बालक खडा था । घुंघराले केश, साँवली सूरत, केशरिया कुर्ता, सफ़ेद धोती, हाथ मे एक छड़ी। माई तो उस मोहिनी सूरत को देखती रह गयी । "बेटा कौन हो तुम?,कहाँ से आये हो ?। तब उस बालक ने बताया मेरा नाम गोपाल हैं ,मुझे सावित्री चाची ने भेजा हैं फिर उसने आगे कहना शुरू किया "चाची बता रही थी की मोहन को पाठशाला से लौटते वक़्त जंगली जानवरों की आवाज़ से डर लगता हैं ,उन्होंने मुझसे कहा हैं की मैं मोहन को पाठशाला से हर दिन घर तक छोड़ दिया करू । अब आप मोहन से कहना बिल्कुल भी न डरे, उसके गोपाल भैय्या उसे घर तक छोड़ दिया करेंगे। "पर बेटा तुम सावित्री के कौन लगते हो" माई ने पूछा। पूछने पर पता चला की वो सावित्री के दूर का रिश्तेदार हैं । "भला हो सावित्री का, जो उसने मेरी परेशानी को समझा और तुम्हे मेरी मदद के लिए भेज दिया,मैं आज ही उससे मिलकर उसका शुक्रियदा करुँगी"माई ने कहा । "चाची उसके लिए तुम्हे थोडा इंतज़ार करना पड़ेगा क्यूंकि सावित्री चाची तो आज ही तीर्थयात्रा के लिए निकल गयी हैं" इतना कहकर गोपाल चला गया । जब शाम को मोहन घर लौटा तो माई ने सारी बात बतायी, यह सुनकर वो ख़ुशी से उछल पडा। अब हर दिन का यह नियम बन गया था,जंगल के छोर पर आकर वो आवाज़ लगाता "गोपाल भैय्या ,गोपाल भैय्या और गोपाल भैय्या सामने हाज़िर ।
एक दिन पाठशाला मे खीर बनाने की प्रतियोगिता थी और मास्टरजी ने सबको दूध लाने को कहा। उसकी कक्षा मे सभी संपन्न परिवार के बच्चे थे, दूध लाना उनके लिए कोई बड़ी बात न थी। मोहन ने माई से कहा "माई मूझे भी दूध चाहिए"। माई कहने लगी "बेटा मैं कहा से लाऊ,घर मे खाने को पूरा नहीं पड़ता । मोहन उदास हो गया और घर के एक कोने मे जाकर बैठ गया। अगले दिन वो अनमना सा हो पाठशाला के लिए निकला, जंगल के किनारे पहुचा तो देखता है सामने गोपाल भैय्या खड़े है। भैय्या के हाथ मे मिटटी का कुल्हड़ था उसे देते हुए कहने लगे "ले, आज तेरी पाठशाला मे खीर बनाने की प्रतियोगिता है न, यह कुल्हड़ भर दूध ले जा। कुल्हड़ भर दूध देख मोहन को ग़ुस्सा आ गया कहने लगा "आप भी मेरे से मसखरी करते हे,क्या पूरी कक्षा के बीच मेरा मज़ाक उड़वाओगे"। "नाराज़ मत हो लेके तो जा यह कहकर उन्होंने दूध से भरा कुल्हड़ मोहन के हाथ थमा दिया और चले गए।
पाठशाला पहूच कर वो देखता हे सभी बच्चे कनस्तर भर दूध लाये हे और वो कुल्हड़ भर दूध । गुरूजी सभी बच्चे के दूध के कनस्तरो को एक बड़े से पतीले मे खाली करवा रहे थे। "गुरूजी मेरा लाया हुआ दूध भी पतीले मे खाली कर लो "वो कहने लगा । गुरूजी ने उसके कुल्हड़ भर दूध की और देखा और चिढ कर कहा "जाओ उस पतीले मे खाली कर दो । मोहन ने दूध गुरूजी के बताये पतीले मे खाली कर दिया। "गुरूजी पतीला पूरा भर गया, अब यह दूध कहाँ खाली करू "उसने कहा । गुरूजी अचरज मे पड़ गए,कुल्हड़ भर दूध मे पतीला किस तरह भर गया। फिर भी गुरूजी ने कहा " जाओ दूसरे पतीले मे डाल दो। यह क्या दूसरा पतीला भी भर गया, ऐसा करते -करते वहां रखे सभी पतीले भर गए,मगर कुल्हड़ का दूध ख़त्म न होता था ।पूरी पाठशाला मे मोहन के लाये हुए दूध की चर्चा होने लगी।
गुरूजी खुश होने के बजाय क्रोधित हो गए, मोहन के कान को मरोड़कर कहाँ "बता यह दूध कहा से लाया,क्या जादू -टोना किया हे इस दूध मे, हम सभी को मारना चाहता था। तडाक करके एक तमाचा मोहन के गाल पर रसीद दिया। मोहन ने कहा "गुरूजी मूझे मत मारो यह दूध तो मूझे मेरे गोपाल भैय्या ने दिया हे"। "चल मिला हमको तेरे गोपाल भैया से "ऐसा कहते हुए गुरूजी मोहन को घिसिटते हुए ले जाने लगे । आगे -आगे गुरूजी और मोहन, पीछे -पीछे पूरी पाठशाला । जंगल के उस किनारे पर पहुचे जहाँ मोहन गोपाल भैय्या से मिला करता था । "बूला अपने गोपाल भैय्या को"। उसने आवाज़ लगाई गोपाल भैय्या , गोपाल भैय्या कहा हो तुम देखो सब आये हे आप से मिलने । जो गोपाल भैय्या मोहन की एक आवाज़ सुनकर आ जाया करते थे,आज इतना पुकारने पर भी नहीं आ रहे थे । मोहन का रो -रो कर बुरा हाल हो रहा था। अचानक सामने से एक आलोकिक प्रकाश उठा। उस तेज दिव्य ज्योति के आगे सबकी आँखे चुंधिया गयी । मोहन ख़ुशी से नाच उठा "देखो गुरूजी वो खड़े मेरे गोपाल भैय्या और उसने उस प्रकाश की और इशारा किया ।
अब गुरूजी को समझते देर न लगी यह कोई और नहीं बांकेबिहारी, बंशीधर ,भगवान् श्री कृष्ण है। मोहन आज तेरी वजह से हमें प्रभु के दर्शन हुए। ऐसा कहते हुए गुरूजी की आँखों में से अश्रु बहने लगे । " कभी निर्बल पर अत्याचार मत करो, मैं हमेशा उनका साथ देता हू जो दिल के साफ़ होते है,छल-कपट से जो दूर रहते है, जो दुसरो की परवाह करते है, अगर मूझे पाना चाहते हो तो मेरे बताये रास्ते पर चलो इतना कहकर प्रभु गायब हो गए । एक बार फिर गुरूजी ने मोहन से माफ़ी मांगी और उसे अपने गले से लगा लिया ।

Tuesday, May 18, 2010

नानी की पोटली से [ भूली बिसरी एक कहानी ]

जब छोटी थी, तो कहानियां सुनने का बहुत शोक था। शोक तो अभी भी है, लेकिन अब नानी नहीं है जो मुझे ढेर सारी कहानियाँ सुनाया करती थी । नानी की पोटली मे कहानियों का अम्बार रहता था। कभी वो मुझे राजा हरिश्चंद्र की तो कभी मोरध्वज की तो कभी धार्मिक कथाये - जैसे सूरज भगवान् की, कभी गणेश भगवान् की तो कभी किसी अन्य देवी देवताओ की कहानियाँ सुनाया करती थी । नानी कि कहानियाँ विशाल महासागर के गर्भ मे छुपे वो दुर्लभ मोती है , एक अनमोल खज़ाना है । चलिए ज्यादा वक्त न लेते हुए आपको नानी के द्वारा सुनाई हुई एक कहानी सुनती हूँ ।
कहानी का शीर्षक है : सोना बाई

बहुत साल पहले कि बात है, एक नगर मे सात भाई रहा करते थे । उन सात भाइयों कि एक बहन थी जिसका नाम सोना बाई था । जैसा नाम वैसा ही रूप, सुनहरे बाल, कंचन काया ,बोली इतनी मीठी की सुनने वाला सुनता ही रहे । अपने माता -पिता और भाइयों की लाडली थी सोना बाई ।

धीरे -धीरे वक़्त बीतने लगा , समय पंख लगा कर उड़ा जा रहा था । सोनाबाई अब ११ वर्ष कि हो रही थी। सातो भाइयों का विवाह हो चूका था । सातो भाई अपनी -अपनी पत्नियों के साथ अलग -अलग घरो मे रहने लगे थे । सोनाबाई के लिए भाइयों के दुलार और प्यार मे कोई कमी नहीं आई थी । भाइयों का यह प्यार सोनाबाई के लिए मुसीबत का कारण बन जाएगा यह उसने कभी सोचा न था । दरअसल भाभियों को भाइयों का सोनाबाई के प्रति स्नेह डाह यानी द्वेष का कारण बन गयी थी। भाभियाँ सोचती किसी तरह सोनाबाई नाम का काँटा उनके जिंदगी से निकल जाए । और एक दिन उन्हें यह मौक़ा मिल भी गया ।

एक दिन सोनाबाई अपनी भाभियों के साथ जंगल मे मिट्टी खोदने गयी । जिस जगह से सोनाबाई मिट्टी खोदती वहां से हीरे -मोती , सोना -चांदी निकलता । भाभियों ने जब यह सब देखा तो सोनाबाई से बोली "बाईसाब थे अठे आओ -यानी कि इधर आओ , आप यहाँ मिट्टी खोदो। सोनाबाई उनके मन मे आये लालच को समझ ना सकी और उनकी बतायी जगह से मिट्टी खोदने लगी । जहाँ सोनाबाई पहले मिट्टी खोद रही थी,जब उन्होंने उस जगह कि मिट्टी को जाकर छुआ तो, उस मिट्टी से निकले हीरे-मोती , सोना-चांदी फिर मिट्टी मे परिवर्तित हो गए। हद तो तब हो गयी जहाँ पहले वे मिट्टी खोद रही थी , वो जगह सोनाबाई के हाथ का स्पर्श पाते ही फिर से हीरे -मोती, सोना-चांदी उगलने लगी । "आज तो सोनाबाई का हिसाब कर ही देना चाहिए" भाभियों ने आपस मे कहा। और अपनी योजना के मुताबिक़ उसे जंगल मे छोड़कर चली आई । घर आकर वे सब छाती पीट -पीटकर रोने लगी और कहने लगी "हाय हमारी सोना को तो जंगली जानवर उठा कर ले गया"। भाइयों ने कहा कि " हमें उस जगह पर ले चलो जहाँ यह घटना हुई है"। यह सुनकर वे सब घबरा गयी बोली "आपको क्या लगता है, हमने पीछा ना किया होगा, अरे बहुत बड़ा जंगली जानवर था और वो हमारी सोना को जंगल के भीतर बहुत गहरे ले गया है, अब कुछ फायदा नहीं वहां जाने का" । माँ -बाप बेटी के गम मे बेसुध हो गए थे। भाइयों को लगा उनके शरीर से आत्मा निकल गयी है।

इधर जंगल मे जब सोनाबाई ने देखा की उसकी भाभियों का कही कोई अता -पता नहीं है तो वो बिलख -बिलख कर रोने लगी। सूरज ढलने को था , धीरे -धीरे शाम गहरा रही थी । 'अलख-निरंजन ' की आवाज़ लगता हुआ एक साधू -बाबा निकला । "क्या हुआ बेटी तुम क्यों रो रही हो "बाबा ने पूछा । फिर सोनाबाई ने अपनी आप-बीती उस बाबा को बताई । साधू ने जब टोकरी पर नज़र डाली तो उसकी आँखे चुंधिया गयी । वो बाबा साधू के रूप मे एक पाखंडी था । वो सोनाबाई को बहला -फुसलाकर अपने घर ले आया ।
उसने सोनाबाई के सुनहरे बालो को कटवा दिया और लडको जैसे कपडे पहना दिए। सोनाबाई को घर से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी । साधू रोज़ नगर जाता और भिक्षा मांग कर लाता, खुद भी खाता सोनाबाई को भी देता । सोनाबाई हर वक़्त उस कैद से निकल जाने का रास्ता खोजा करती ।

एक दिन साधू बीमार पड़ गया । वो ऐसी हालत मे नहीं था कि भिक्षा मांगने जा सके ।" मैं तो जा नहीं सकता अब भोजन की व्यवस्था किस तरह से होगी" उसने कहा। आप चिंता मत करो मैं चली जाती हूँ भिक्षा मांगने । ऐसा कहकर सोनाबाई चली गयी । रास्ते मे एक राहगीर से नगर का रास्ता पूछा और उसके बताये रास्ते पर चलते -चलते नगर पहुच गयी । सोनाबाई की यादाश्त बड़ी तेज़ थी, उसे अपने सभी भाइयों के घर का रास्ता पता था । वो सबसे पहले सबसे बड़े भाई के घर गयी और वहां जाकर उसने यह पंक्तिया गायी। सात भाई बीच सोनाबाई बेटी, मोतीडा बीनता, जोगीड़ा ने पकड़ा
,माई माई भिक्षा दे । भाई ने जब यह आवाज़ सुनी तो तुरंत पहचान लिया अरे !, ये तो मेरी लाडली बहन सोना कि आवाज़ है। भाभी ने बहुत रोकने की कोशिश की पर अब भाई कहाँ रुकने वाला था । उसने आवाज़ लगा कर अपनी बहन को ऊपर बुला लिया । दोनों भाई -बहन गले लगकर बहुत रोये । बाकी भाइयों को और माता -पिता को सोनाबाई के मिलने का समाचार मिला वो दौड़े दौड़े आये । जब भाइयों को अपनी पत्नियों कि असलियत पता चली तो सबने अपनी पत्नियों को छोड़ने का फैसला कर लिया। लेकिन सोनाबाई ने अपने भाइयों को बहुत समझाया तो वो सब कहने लगे कि एक शर्त पर अपनी पत्नियों को माफ़ करेंगे कि उन सभी को सोनाबाई के पैरो मे गिरकर क्षमा मांगनी पड़ेगी । सभी ने सोनाबाई से माफ़ी मांगी।एक बार फिर वो सब ख़ुशी -ख़ुशी रहने लगे ।