वो ज़िन्दगी की सीढियाँ , चढ़ता रहा, और उम्र की, उतरता रहा, और हर सीढ़ी पर अपने निशां छोड़ता रहा। आज वही जर -जर काया उम्र की अंतिम पायदान पर बैठ ज़िन्दगी का विश्लेषण कर रहा था।
वक़्त ने उसके होने पर न जाने कब से धुल डाल दी थी।
उस कमरे में न जाने कब से वो तन्हा जीवन जी रहा था। अपने वजूद पर पड़ी उस धुल को झटक देना चाहता था। दिखा देना चाहता था वो उन लोगों को की वो भी इस संसार का हिस्सा हैं, खुदा की बनी इस कायनात पर उसका भी अपना हक हैं . उसकी आत्मा चीख -चीख कर कह रही थी; मगर ये आर्तनाद उसके अलावा कोई और सुनने वाला नहीं था। चारो तरफ बदलाव का शोर हैं।
बदलते परिवेश में रिश्तो के मतलब भी बदल गए। रिश्तों के साथ -साथ इस कमरे की काया भी बदल गयी थी। दीवारों के रंग बदरंग हो गए और उससे परते गिरने लगी..... उन बदलती दीवारों में जीवन की सच्चाई नज़र आने लगी। अव्यवस्थित कमरा जीवन में फैले बिखराव की खामोश दास्ताँ सुना रहा था।
शाम ढल रही. थी … पास के ही कमरे से गाने -बजाने , हँसी मजाक की आवाज़े आ रही थी। एक ख्याल दीमाग में आया, की ये जवानी की लहर,जीवन में एक ज्वार की तरह उठती हैं.... जब तक इसका उफान रहता हैं.... अपनी आगोश में सब कुछ समेटना चाहता हैं ; और जब इसका उन्माद थमता हैं तो पीछे कुछ ऐसी निशानियाँ छोड़ जाती हैं.... जो जीवन भर पीछा करती हैं। ये सब मेरा ही किया हुआ कर्म हैं सोचने लगा वो। रात फैलती रही और एक -एक कतरा बन उसके दिल के भीतर रिसती रही; भीतर के अवसाद को बढ़ाती रही। काश ! ये रात मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल जाती; वक़्त ये बीत जाता। इन सब विचारों ने उसकी साँसों को दबाना शुरू कर दिया, और साँसे छटपटाती रही ; संघर्ष करती रही.... कुछ और पल …. मिल जाए इस जीवन में। इंसानी फितरत भी बड़ी अजीब हैं... जिंदगी के प्रति मोह को छोड़ नहीं पाता। मगर नियति और चाहत में बड़ा फर्क हैं; और उस अंतिम साँस ने ' मौत' नाम की इस नियति को गले लगा लिया।
अपने पार्थिव शारीर को उसकी रूह करीब से देख रही थी। आज उसे अपनी मुर्खता पर हँसी आ रही थी। इस मिटटी की काया से इतना प्यार, इसके होने से इतना मोह, इसके चले जाने से इतना क्षोभ। खुद वो अपनी मौत पर हँसता और रोता भी; रोना इस बात का जिन अपनों के लिए पुरी ज़िन्दगी लगायी वो उसके होने पर सवाल करते थे; और हँसी इस बात की, की ये मोड़ तो उनके जीवन में भी आना हैं, इस सच्चाई से वो अनभिज्ञ क्यूँ हैं , एक आह लेते हुए उसने कहा। और फिर जाने को हुआ ; तभी एक ख्याल उसके मन में आया, जब जीते जी इतने तमाशे देखे। तो मरने के बाद का अंतिम तमाशा देखा जाए। मगर अभी दिन निकलने में कुछ घंटे बाकी हैं, चलो थोडा बाहर टहल के आया जाए, कितने दिन हो गए बाहर निकले। और वो निकल पड़ा बाहर की ओर।
सड़क के किनारे - किनारे चलता रहा। बाहर की खुली हवा ने कुम्हलायी हुई रूह को एक नयी ताज़गी दे दी। उसमे फिर से एक नया ज़ोश आ गया। सोच ही रहा था की कहाँ जाया जाए?
अचानक पास के एक पेड़ की शाख से बंधे झूले में सोये उस मासूम को देख अपना बचपन याद हो आया उसे। चलो उस गाँव में बसे उस घर को जाते -जाते अंतिम बार अलविदा कह दे, जहाँ पहली बार आँख खोली थी। और पलक झपकते हुए वो गाँव की सीमा पर था;सब कुछ बदला -बदला सा था, मगर नहीं बदला तो वो पुराना बरगद का पेड़ जो गाँव की सीमा पर था। कुछ पल इसके नीचे बैठ गया वो। शाखाओं से निकलती हुई उन जड़ो को छुआ, दिल करा फिर बचपन की तरह इन शाखाओं पर झूल जाऊं मगर कही कोई देख न ले... अचानक वो मुस्कुराने लगा, वो तो अब इस दुनिया का हिस्सा ही नहीं हैं .. तो किसी को भला क्या दिखूंगा; जब था तो कौन सा किसी ने देखा था। थोड़ी देर तक झूलता रहा उन जड़ो को पकड़कर निर्भीक हो कर... जिन अपनों ने हाथ झटक लिए थे, इन जड़ो ने उसके हाथ मजबूती से थाम लिए थे। देर तक .... वो अपने घर को तलाशता रहा और घर भी मिला तो ऐसी अवस्था में जिसे घर नहीं खण्डहर कहना ज्यादा उपयुक्त होता । उसका दिल द्रवित हो उठा फिर भी वो उन अवशेषों में बचपन की यादों को सहेजता रहा। गाँव के हर कोने -कोने वो भटकता रहा मगर जिस अपनेपन की तलाश वो सारी उम्र करता रहा ,मरने के बाद भी रूह बन वो अपने गाँव में न पा सका। गाँव के छोर पर वो खड़ा था अंतिम विदाई के लिए।
बस थोडा समय और रह गया था सूरज को निकलने में। हर जगह वो गया जहाँ जीवन के महत्वपूर्ण पल बीताये थे.... और बार-बार मरता रहा; आघात पर आघात लेता रहा। पछताता रहा क्यूँ निकला में एक रात की सैर करने। क्या देखना था उसे ? .... बस !!! अब और नहीं सहन होता लौट आया फिर उसी कमरे में। पूरब से निकलता सूरज नए दिन का सन्देश दे रहा था.… लेकिन उसके जीवन का सूर्य तो कुछ घंटो पहले ही अस्त हो चूका था। अपने पार्थिव शारीर को फूलों से सजा देख, एक अंतिम फ़ास फिर सीने में गड़ गयी।
'राम नाम सत्य हैं ' इस आवाज़ के साथ वो भी चल पड़ा अपनी अंतिम यात्रा पर। पंच धातु से बना शारीर उन्ही पंच तत्व में मिल गया। और वो ज्योति बन इस संसार से विदा हो गया।
वक़्त ने उसके होने पर न जाने कब से धुल डाल दी थी।
उस कमरे में न जाने कब से वो तन्हा जीवन जी रहा था। अपने वजूद पर पड़ी उस धुल को झटक देना चाहता था। दिखा देना चाहता था वो उन लोगों को की वो भी इस संसार का हिस्सा हैं, खुदा की बनी इस कायनात पर उसका भी अपना हक हैं . उसकी आत्मा चीख -चीख कर कह रही थी; मगर ये आर्तनाद उसके अलावा कोई और सुनने वाला नहीं था। चारो तरफ बदलाव का शोर हैं।
बदलते परिवेश में रिश्तो के मतलब भी बदल गए। रिश्तों के साथ -साथ इस कमरे की काया भी बदल गयी थी। दीवारों के रंग बदरंग हो गए और उससे परते गिरने लगी..... उन बदलती दीवारों में जीवन की सच्चाई नज़र आने लगी। अव्यवस्थित कमरा जीवन में फैले बिखराव की खामोश दास्ताँ सुना रहा था।
शाम ढल रही. थी … पास के ही कमरे से गाने -बजाने , हँसी मजाक की आवाज़े आ रही थी। एक ख्याल दीमाग में आया, की ये जवानी की लहर,जीवन में एक ज्वार की तरह उठती हैं.... जब तक इसका उफान रहता हैं.... अपनी आगोश में सब कुछ समेटना चाहता हैं ; और जब इसका उन्माद थमता हैं तो पीछे कुछ ऐसी निशानियाँ छोड़ जाती हैं.... जो जीवन भर पीछा करती हैं। ये सब मेरा ही किया हुआ कर्म हैं सोचने लगा वो। रात फैलती रही और एक -एक कतरा बन उसके दिल के भीतर रिसती रही; भीतर के अवसाद को बढ़ाती रही। काश ! ये रात मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल जाती; वक़्त ये बीत जाता। इन सब विचारों ने उसकी साँसों को दबाना शुरू कर दिया, और साँसे छटपटाती रही ; संघर्ष करती रही.... कुछ और पल …. मिल जाए इस जीवन में। इंसानी फितरत भी बड़ी अजीब हैं... जिंदगी के प्रति मोह को छोड़ नहीं पाता। मगर नियति और चाहत में बड़ा फर्क हैं; और उस अंतिम साँस ने ' मौत' नाम की इस नियति को गले लगा लिया।
अपने पार्थिव शारीर को उसकी रूह करीब से देख रही थी। आज उसे अपनी मुर्खता पर हँसी आ रही थी। इस मिटटी की काया से इतना प्यार, इसके होने से इतना मोह, इसके चले जाने से इतना क्षोभ। खुद वो अपनी मौत पर हँसता और रोता भी; रोना इस बात का जिन अपनों के लिए पुरी ज़िन्दगी लगायी वो उसके होने पर सवाल करते थे; और हँसी इस बात की, की ये मोड़ तो उनके जीवन में भी आना हैं, इस सच्चाई से वो अनभिज्ञ क्यूँ हैं , एक आह लेते हुए उसने कहा। और फिर जाने को हुआ ; तभी एक ख्याल उसके मन में आया, जब जीते जी इतने तमाशे देखे। तो मरने के बाद का अंतिम तमाशा देखा जाए। मगर अभी दिन निकलने में कुछ घंटे बाकी हैं, चलो थोडा बाहर टहल के आया जाए, कितने दिन हो गए बाहर निकले। और वो निकल पड़ा बाहर की ओर।
सड़क के किनारे - किनारे चलता रहा। बाहर की खुली हवा ने कुम्हलायी हुई रूह को एक नयी ताज़गी दे दी। उसमे फिर से एक नया ज़ोश आ गया। सोच ही रहा था की कहाँ जाया जाए?
अचानक पास के एक पेड़ की शाख से बंधे झूले में सोये उस मासूम को देख अपना बचपन याद हो आया उसे। चलो उस गाँव में बसे उस घर को जाते -जाते अंतिम बार अलविदा कह दे, जहाँ पहली बार आँख खोली थी। और पलक झपकते हुए वो गाँव की सीमा पर था;सब कुछ बदला -बदला सा था, मगर नहीं बदला तो वो पुराना बरगद का पेड़ जो गाँव की सीमा पर था। कुछ पल इसके नीचे बैठ गया वो। शाखाओं से निकलती हुई उन जड़ो को छुआ, दिल करा फिर बचपन की तरह इन शाखाओं पर झूल जाऊं मगर कही कोई देख न ले... अचानक वो मुस्कुराने लगा, वो तो अब इस दुनिया का हिस्सा ही नहीं हैं .. तो किसी को भला क्या दिखूंगा; जब था तो कौन सा किसी ने देखा था। थोड़ी देर तक झूलता रहा उन जड़ो को पकड़कर निर्भीक हो कर... जिन अपनों ने हाथ झटक लिए थे, इन जड़ो ने उसके हाथ मजबूती से थाम लिए थे। देर तक .... वो अपने घर को तलाशता रहा और घर भी मिला तो ऐसी अवस्था में जिसे घर नहीं खण्डहर कहना ज्यादा उपयुक्त होता । उसका दिल द्रवित हो उठा फिर भी वो उन अवशेषों में बचपन की यादों को सहेजता रहा। गाँव के हर कोने -कोने वो भटकता रहा मगर जिस अपनेपन की तलाश वो सारी उम्र करता रहा ,मरने के बाद भी रूह बन वो अपने गाँव में न पा सका। गाँव के छोर पर वो खड़ा था अंतिम विदाई के लिए।
बस थोडा समय और रह गया था सूरज को निकलने में। हर जगह वो गया जहाँ जीवन के महत्वपूर्ण पल बीताये थे.... और बार-बार मरता रहा; आघात पर आघात लेता रहा। पछताता रहा क्यूँ निकला में एक रात की सैर करने। क्या देखना था उसे ? .... बस !!! अब और नहीं सहन होता लौट आया फिर उसी कमरे में। पूरब से निकलता सूरज नए दिन का सन्देश दे रहा था.… लेकिन उसके जीवन का सूर्य तो कुछ घंटो पहले ही अस्त हो चूका था। अपने पार्थिव शारीर को फूलों से सजा देख, एक अंतिम फ़ास फिर सीने में गड़ गयी।
'राम नाम सत्य हैं ' इस आवाज़ के साथ वो भी चल पड़ा अपनी अंतिम यात्रा पर। पंच धातु से बना शारीर उन्ही पंच तत्व में मिल गया। और वो ज्योति बन इस संसार से विदा हो गया।