Thursday, August 29, 2013

yatra

वो  ज़िन्दगी  की  सीढियाँ , चढ़ता  रहा, और  उम्र  की,  उतरता  रहा, और  हर  सीढ़ी  पर  अपने  निशां  छोड़ता  रहा। आज  वही  जर -जर   काया  उम्र  की  अंतिम  पायदान  पर  बैठ  ज़िन्दगी  का  विश्लेषण कर  रहा  था।
वक़्त  ने  उसके  होने  पर  न  जाने  कब  से  धुल  डाल  दी  थी।

उस  कमरे  में  न  जाने  कब  से  वो  तन्हा  जीवन  जी  रहा  था।  अपने  वजूद  पर  पड़ी  उस  धुल  को  झटक  देना  चाहता  था।  दिखा  देना  चाहता  था  वो  उन  लोगों  को  की  वो  भी  इस  संसार  का  हिस्सा  हैं,   खुदा  की बनी  इस  कायनात  पर  उसका  भी  अपना  हक  हैं . उसकी  आत्मा  चीख -चीख  कर  कह  रही  थी; मगर   ये  आर्तनाद  उसके  अलावा  कोई  और  सुनने  वाला  नहीं  था।  चारो  तरफ  बदलाव  का  शोर  हैं।
बदलते  परिवेश  में   रिश्तो  के  मतलब  भी  बदल  गए।  रिश्तों  के  साथ -साथ  इस  कमरे  की  काया  भी बदल  गयी  थी। दीवारों  के  रंग  बदरंग  हो  गए  और  उससे  परते  गिरने  लगी..... उन  बदलती  दीवारों  में  जीवन  की  सच्चाई   नज़र  आने  लगी।  अव्यवस्थित  कमरा   जीवन  में  फैले  बिखराव  की  खामोश दास्ताँ  सुना  रहा  था।

शाम  ढल  रही. थी … पास  के  ही  कमरे   से  गाने -बजाने , हँसी  मजाक  की  आवाज़े आ  रही  थी।  एक  ख्याल  दीमाग  में  आया, की  ये  जवानी  की  लहर,जीवन  में  एक  ज्वार  की  तरह   उठती  हैं.... जब  तक  इसका  उफान  रहता  हैं.... अपनी  आगोश में  सब  कुछ  समेटना  चाहता  हैं ; और  जब  इसका  उन्माद  थमता  हैं  तो  पीछे  कुछ  ऐसी  निशानियाँ  छोड़  जाती  हैं.... जो  जीवन  भर  पीछा  करती  हैं।  ये  सब  मेरा  ही  किया  हुआ  कर्म  हैं सोचने  लगा  वो।   रात  फैलती   रही  और  एक -एक  कतरा  बन  उसके दिल  के  भीतर  रिसती  रही; भीतर  के  अवसाद  को  बढ़ाती  रही।  काश !  ये  रात  मुट्ठी  में  बंद  रेत  की  तरह फिसल  जाती; वक़्त  ये  बीत  जाता।  इन  सब  विचारों  ने  उसकी  साँसों  को  दबाना  शुरू  कर  दिया, और  साँसे  छटपटाती  रही ; संघर्ष  करती  रही.... कुछ  और  पल ….  मिल    जाए  इस  जीवन  में।  इंसानी  फितरत  भी  बड़ी अजीब  हैं... जिंदगी  के  प्रति  मोह  को  छोड़  नहीं  पाता।  मगर  नियति  और  चाहत  में  बड़ा  फर्क  हैं; और  उस  अंतिम  साँस  ने ' मौत'  नाम  की  इस   नियति  को  गले  लगा  लिया।

अपने  पार्थिव  शारीर  को उसकी   रूह   करीब  से  देख  रही  थी।  आज  उसे  अपनी  मुर्खता  पर  हँसी  आ  रही  थी।  इस  मिटटी  की  काया   से  इतना  प्यार,  इसके  होने  से  इतना  मोह, इसके  चले  जाने  से  इतना  क्षोभ।  खुद  वो  अपनी  मौत  पर  हँसता  और  रोता  भी; रोना  इस  बात  का  जिन  अपनों  के  लिए  पुरी  ज़िन्दगी  लगायी  वो  उसके  होने  पर  सवाल  करते  थे; और  हँसी  इस  बात  की,  की  ये  मोड़  तो  उनके  जीवन  में  भी  आना  हैं, इस  सच्चाई  से  वो  अनभिज्ञ  क्यूँ   हैं , एक  आह  लेते  हुए  उसने  कहा।  और  फिर  जाने  को  हुआ ;  तभी  एक  ख्याल  उसके  मन  में  आया, जब  जीते  जी  इतने  तमाशे  देखे।  तो  मरने  के  बाद  का  अंतिम  तमाशा  देखा  जाए।  मगर  अभी  दिन  निकलने   में  कुछ  घंटे  बाकी  हैं, चलो  थोडा  बाहर  टहल  के  आया  जाए,  कितने  दिन  हो  गए   बाहर  निकले।  और  वो  निकल  पड़ा  बाहर  की  ओर।

सड़क  के  किनारे - किनारे  चलता  रहा।  बाहर  की  खुली  हवा  ने  कुम्हलायी  हुई  रूह  को  एक  नयी  ताज़गी  दे  दी।  उसमे  फिर  से  एक  नया  ज़ोश  आ  गया।  सोच  ही  रहा  था   की  कहाँ  जाया  जाए?
अचानक  पास  के  एक  पेड़  की  शाख  से  बंधे  झूले  में  सोये  उस  मासूम  को  देख  अपना  बचपन  याद  हो  आया  उसे।  चलो  उस  गाँव  में  बसे  उस  घर  को  जाते -जाते  अंतिम  बार  अलविदा  कह  दे, जहाँ  पहली  बार  आँख  खोली  थी। और  पलक  झपकते  हुए  वो  गाँव  की  सीमा  पर  था;सब  कुछ  बदला -बदला  सा  था, मगर  नहीं  बदला  तो  वो  पुराना  बरगद  का  पेड़ जो  गाँव  की  सीमा  पर  था।  कुछ  पल  इसके  नीचे  बैठ  गया  वो।  शाखाओं  से  निकलती  हुई  उन  जड़ो  को  छुआ,  दिल  करा  फिर  बचपन  की  तरह  इन  शाखाओं  पर  झूल  जाऊं मगर  कही  कोई  देख  न  ले... अचानक  वो  मुस्कुराने  लगा, वो  तो  अब  इस  दुनिया  का  हिस्सा  ही  नहीं  हैं .. तो  किसी  को  भला  क्या  दिखूंगा; जब  था  तो  कौन  सा  किसी  ने  देखा  था।  थोड़ी  देर  तक  झूलता  रहा  उन  जड़ो  को  पकड़कर  निर्भीक  हो  कर...   जिन  अपनों  ने  हाथ  झटक  लिए  थे, इन  जड़ो  ने  उसके  हाथ  मजबूती  से  थाम  लिए  थे। देर  तक .... वो अपने  घर  को  तलाशता  रहा  और  घर  भी  मिला  तो  ऐसी  अवस्था  में  जिसे  घर  नहीं  खण्डहर  कहना  ज्यादा  उपयुक्त  होता ।  उसका  दिल  द्रवित हो  उठा  फिर  भी  वो  उन  अवशेषों  में  बचपन  की  यादों  को  सहेजता  रहा।  गाँव  के   हर  कोने -कोने  वो  भटकता  रहा मगर  जिस  अपनेपन  की  तलाश  वो  सारी  उम्र  करता  रहा ,मरने  के  बाद  भी  रूह  बन  वो  अपने  गाँव  में  न  पा  सका।  गाँव  के छोर  पर  वो  खड़ा था   अंतिम  विदाई  के  लिए।

बस  थोडा  समय  और  रह  गया  था  सूरज  को  निकलने  में।  हर  जगह  वो  गया  जहाँ  जीवन  के  महत्वपूर्ण  पल  बीताये  थे....  और  बार-बार  मरता  रहा;  आघात  पर  आघात  लेता  रहा।  पछताता  रहा  क्यूँ  निकला  में   एक  रात  की  सैर  करने।  क्या  देखना  था  उसे ? .... बस !!! अब  और  नहीं  सहन  होता  लौट  आया  फिर  उसी  कमरे  में।  पूरब  से  निकलता  सूरज  नए  दिन  का  सन्देश  दे  रहा  था.…  लेकिन  उसके  जीवन  का  सूर्य  तो  कुछ  घंटो  पहले  ही  अस्त  हो  चूका  था।   अपने  पार्थिव  शारीर  को  फूलों  से  सजा  देख, एक  अंतिम  फ़ास  फिर  सीने  में  गड़  गयी। 

'राम  नाम  सत्य  हैं ' इस  आवाज़  के  साथ  वो  भी  चल  पड़ा  अपनी  अंतिम  यात्रा  पर।   पंच  धातु  से  बना  शारीर  उन्ही  पंच  तत्व  में  मिल  गया।  और  वो  ज्योति  बन  इस  संसार  से  विदा  हो  गया।






Thursday, August 22, 2013

udaan

बादलों  से  कुछ  दिनो  की  लुका-छुपी के बाद, आसमान  के  एक  कोने  में, सूरज  अपनी  मौजूदगी  दर्ज  करा  रहा  था। बंद  खिड़की  की  सुराख  से  उन  किरणों  ने  अपना  रास्ता  बनाते  हुए  मनु  के  चेहरे   को  होले  से  छुआ, मनु   माँ..... माँ..... कहती  हुई  बैठ  गयी। किरणों  की  उन  छुअन ने  उसे  माँ  की याद  दिला  दी... मगर, तभी  उसे, स्मरण  हो  आया.... अब  माँ  कहाँ  वो  तो  बहुत  दूर  चली  गयी  हैं.... जहाँ  चाह  कर  भी  कोई  नहीं पहुँच  सकता। हाल  ही में  आये  केदारनाथ  के  उस  विनाशकारी  तूफ़ान  ने,  मनु  जैसे, कितने  लोगों  के  सर  से  अपनों  का साया  हमेशा  के  लिए उठा  लिया  था।  सुना  था  उसने  की  जल  जीवन  हैं, मगर  उसी  जीवनदायनी  जल  ने  असंख्यो  को  जलमग्न  कर  दिया  था।

'मनु  ओ  मनु,  कितना  सोयेगी, काम  पर  जाना  नहीं, और  चाय  नहीं  मिलेगी  आज' पिता  की  आवाज़  सुन  वो  हडबडा  कर  खाट  से  उतरी  और  रसोई  की  ओर  भागी।  चूल्हे  पर  चढ़े  उस  खोलते  हुए  पानी  से
निकलती  उस  भाप  की  तरह  उसके  सारे  ख्वाब  न  जाने  कहाँ  उड़  गए  थे।  पिता  को  चाय  और  पाव  देकर  वो  स्नान  करने  चली  गयी।  एक  वक़्त  था  जब  वो  स्नान  करते  वक़्त  साबुन  के  बुलबुलों  से  खेला  करती  थी , और  उन  पारदर्शी  बुलबुलों  में  तिरते  रंगों  को  देख सोचा  करती  थी... ये  रंग  आते  कैसे  हैं। अब  तो  वो  पल  ही  कहाँ।  जहाँ  माँ  पहले  काम  करती  थी, उन्ही  एक -दो  घरो  में  उसके  पिता  ने  उसे काम  पर  लगा  दिया  था।  हमेशा  चिड़ियाँ  की  तरह  चहचहाने  वाली मनु  चुप-चुप  सी हो  गयी  थी। जिम्मेदारियों  ने  उसे  उम्र  से  पहले  ही  परिपक्व  बना  दिया  था।  स्नान  कर  उसने  माँ  की  तस्वीर  के  आगे  अगरबत्ती  लगा  दी  और  निकल  पड़ी.… अब  उसकी  ज़िन्दगी  घडी  की  सुइयों की तरह  हो  गयी  थी।

आज  फिर  से  काम  पर  जाते  हुए  उसने  वही  गीत  सुना  जो  सड़क  पार  स्थित  स्कूल  में  सुबह  की  प्रार्थना  के  तौर  पर  गाया  जाता  था ' इतनी  शक्ति  हमें  देना  दाता, मन  का  विशवास  कमजोर  हो  न ' एक समय  था  जब  वो  भी  उन  बच्चो  के  साथ  मिल  ये  गीत  गाया  करती  थी। माँ  ने  सारी  तकलीफों का  सामना  करते  हुए.…. अपने  पति  की  नाराज़गी  को  बर्दास्त  कर  उसे  स्कूल  भेजा  था। लेकिन  माँ  के  जाने  के  बाद  उसके  बापू  ने  स्कूल  जाने  पर  रोक  लगा  दी। अब  कौन  हैं  जो  उसके  लिए  आवाज़  उठाये
ख़ामोशी  से  वो  सब  सहन  किये  जा  रही  थी.…अपने  बापू  से कुछ  भी कह  पाने  की  हिम्मत उसमे  न  थी
एक  अवर्णित  दर्द  लिए  वो  जिए  जा  रही  थी।  क्या  कभी  वो  अपने  शिक्षित  होने  का  सपना  पूरा  कर  पाएगी।

एक  दिन  ऐसे  ही  काम  से  लौटते  वक़्त, उसने  स्कूल  के  गेट  पर  एक  बुजुर्ग  महिला  को  परेशानी  की  हालत  में  देखा।  वो  सड़क  पार  कर  उनके  पास  पहुँची ' क्या  बात  हैं ? आप  इतनी  परेशान  क्यूँ  हैं ? 'उसने  पुछा।  पता  लगा  की  वो  उसी  स्कूल  में  पढने  वाले  एक  बच्चे  की  दादी  हैं  और  अपने  पोते  को  लेने  आई  हैं।  'रोज़  तो  वो  अपनी  माँ  के  साथ  ही  आता  हैं, जो  इस  स्कूल  में  टीचर  हैं , मगर  आज  वो  बीमार  होने  की  वजह  से  स्कूल  नहीं  आ  पायी  इसलिए  मुझे  आना  पड़ा' पाँच   मिनट  देर  क्या  हो  गयी आने  में.… न  जाने  कहाँ  चला  गया.… अब  क्या  करू ? उन्होंने  कहा। 
आप  घबराइए  मत,  मैं  देखती  हूँ , फिर  उसने  पूछा ' आपके  पोते  का  नाम  क्या  हैं ?
'नाम  तो  उसका  मयंक  हैं.…. मगर  मैं  उसे  बाबू  कह  के  बुलाती  हूँ' उन्होंने  बताया।
फिर  थोडा  इधर -उधर  तलाश  करने  पर मयंक  उन्हें  एक  खोमचे  वाले  के  ठेले  पर  दिखाई  पड़ा।
अपनी  दादी  को  सामने  देख  वो  घबरा  गया  और  भागने  लगा।
'अरे  बाबु  ठहर.… कहाँ  भागता  हैं  शैतान।  मगर  घुटनों  में  दर्द  की  वजह से  वो  उसके  पीछे  दौड़  नहीं  पायी।
मनु  उसके  पास  गयी   और  उसका  हाथ  पकड़कर  उसे  उसके  दादी  के  पास  ले  गयी।
क्यूँ  रे ! बाहर  का  खायेगा  बीमार  हो  जाएगा '  उसका  कान  उमेठते  हुए  कहा।
और  लगभग  घसीटते हुए  उसे  ले  गयी. और  मनु  उन्हें  ज़ाते   हुए  देखती  रही।

दिन  इसी  तरह  सरकते  गए, एक  दिन  ऐसे  ही  काम  से  लौटते  हुए  उसे  पीछे  से  किसी  ने  पुकारा
'बिटिया  ओ  बिटिया' पीछे  मुड़  कर  उसने  देखा  तो  मयंक  की  दादी  थी।
माफ़  करना  बिटिया  उस  दिन  तुम्हारा  नाम  नहीं  पुछ  पायी।
'मनु  नाम  हैं  मेरा ' उसने  धीरे  से  कहा।
दादी  ने  जाना  की  किस  तरह  से  उसकी  माँ  का  देहांत  हुआ और  पिता  ने  उसे  स्कूल  भेजना  बंद  कर  दिया।  उन्हें  बड़ा  दुःख  हुआ  ये  जानके।
'क्या  मैं  आपको  दादी  माँ  कह  सकती  हूँ'? मनु  ने  सकुचाते  हुए  पुछा ।
'अरे ! ये  भी  पूछने  की  बात  हैं ' उन्होंने  हँसते  हुए  कहा।
फिर  उन्होंने  पुछा -'कहाँ  रहती  हो  तुम?'
मनु  ने  हाथ  के  इशारे  से  अपने  घर  का  रास्ता  बताया
'एक  दिन  मैं  तुम्हारे  घर  जरुर आउंगी ' इतना  कह  के  वो  अपने  घर  चली  गयी, और  मनु  भी अपने  घर लौट  आई।  रात  को  बिस्तर  पर  लेटते  वक़्त  वो  सोचने  लगी  की  दादी  कही  बापू  से  मेरे  पढ़ाई  के  विषय  में  तो  बात  करने  नहीं  आई , इस  विचार  से   उसके  शरीर  में एक  लहर  सी  दौड़ गयी, जिसमे  एक अनजान  सी   उम्मीद  और  संशय  दोनों  थे।

सुबह  उसकी  आँख  देर  से  खुली, उसने  उठ  कर  देखा  की  बापू  अभी  तक  सो  रहे  हैं।
वो  सोचने  लगी  की  वो  तो  इतनी  देर  तक  सोते  नहीं  हैं, आज  क्या  हुआ।
उसने  पास  जाकर  बापू  को  धीरे  से  छुआ,  एक  झटका  सा  लगा।
हे  भगवान! बापू  को  इतना  तेज़  बुखार। वो  घबरा  गयी  बापू .. बापू  उसने  आवाज़  लगायी
मगर  बुखार  तेज़  होने  की  वजह  से  बापू   कुछ  बोल  नहीं  पा  रहे  थे।
अब  वो  क्या  करे, किसे  बुलाये , कुछ  समझ  नहीं  आ  रहा  था  उसे।
फिर  उसे  याद  आया  की  एक  बार  स्कूल  में  टीचर  जी  ने  कहा  था  की  कैसी  भी  परिस्तिथि  आये   इंसान  को  घबराना  नहीं  चाहिए. बस  उसने  फिर  बड़े  शांत  चित  से  सोचा  तभी  पास  से  गुजरते  एक  ऑटो  वाले  को  रोका और  सारी  बात  बताई। फिर  ऑटो  वाले  की  मदद  से  अपने  बापू  को  पास  के  ही  दवाखाने  ले  गयी।  डॉक्टर  ने  मुआयना  कर  दवा  लिख  दी, और  कहा  फल  वगेरह  खिलाओ इन्हें।
अरे  मैं  फीस  कैसे  चुकाऊँगी,जल्दी  जल्दी  में  पैसे  लाना  ही  भूल  गयी।
ये  सब  सोच  ही  रही  थी  की  सामने  दादी  नज़र  आई।
दादी  मनु  को  देख  चौंक  उठी ' तुम  यहाँ  क्या  कर  रही  हो ?
'बापू  को  बुखार  हैं  उन्हें  डॉक्टर  साहब  को  दीखाने  लायी  थी ,मगर  जल्दी  जल्दी  में  बटुआ  लाना  भूल  गयी'.
'तो  इसमें  चिंता  की  क्या  बात  हैं  मैं  फीस  चूका  देती  हूँ' उन्होंने  कहा
उसे  दादी  से  पैसे  लेने  में  संकोच  हो  रहा  था.
दादी  उसके  मन  की  स्थति  को  भाँप  गयी' अरे  पगली ! दादी  भी  कहती  हैं और  संकोच  भी  करती हैं।
डॉक्टर  को  फीस  चूका  कर  और  दवाई  लेकर  वो  तीनो  घर  लौट  आये।
घर  पहुँच  कर  मनु  ने  एक  पाव  खिला  कर  बापू  को  दवाई  दे दी।
एक  आध  घंटा  बैठ  दादी  अपने  घर  लौट  गयी।

धीरे  -धीरे  बापू  की  तबियत  संभलने  लगी. और  दादी  भी  इस  बीच  आती  रही।
वो  उसके  पिता  को  अपने  तरीके  से  शिक्षा  का  महत्त्व  समझाती ।
शायद  उसके  पिता  को  भी  साक्षरता  का  महत्त्व  समझ  आ  रहा  था
'माताजी  आप  हर  दिन  कुछ  न  कुछ  लेकर  आ  जाती  हैं' बापू  ने कहा।
'मैंने  मनु  को  अपनी  पोती  माना  हैं , इस  नाते  तुम  मेरे  बेटे  हुए , तो  क्या  एक  माँ  अपने  बेटे  से  पैसे  लेगी 'उन्होंने  कहा;  अगर  कुछ  देना  ही  चाहते  हो  तो  मुझे तो, एक  चीज़  दे  द,  मेरी  पोती  को  उसके  ख्वाब  पुरे  करने  की  इज़ाज़त  दे  दो।
बापू  ने मनु  को  पुकारा ' मनु '
'क्या  हैं  बापू 'उसने  कहा
बापू  ने मनु  के  हाथो  को  अपने  हाथो  में  लेकर  कहा 'आज से ये हाथ सिर्फ  और  सिर्फ किताब  और  कलम  उठाएंगे; और  उसे  अपने  सीने  से  लगा  लिया।
मनु ,बापू  और  दादी  इन  तीनो  की  आँखों  से  ख़ुशी  के  आंसू  बह  रहे  थे।
दादी  ने  अपनी  बहु  से  बात  की और  उनकी  बहु  ने  स्कूल   वालो  से।
कुछ  दिनों  बाद  फिर  से  मनु  का  दाखिला  हो  गया।

आज  वो  घडी  आ गयी, जिसका  इंतज़ार  मनु  को  कब  से  था.
एक  नयी  सुबह,  नयी  रौशनी लिए,  बाँह  फैलाये  उसका  कर  रही  थी  इंतज़ार।
और  मनु  नयी  उड़ान  के  लिए  थी  तैयार।