Tuesday, July 20, 2010

बिल्ली मौसी .

ऊपर दिए गए शीर्षक को देख आप सोच रहे होंगे की मैं आपको 'एनीमल प्लानेट' या फिर 'नेशनल जिओग्राफिक चैनल' की सैर को लिए जा रही हूँ और जंगली बिल्लियों के बारे मे दिलचस्प जानकारी देने वाली हूँ तो आपका अंदाजा एकदम......... गलत है : ) हम तो यहाँ कुछ और ही बात करने वाले है । तो तैयार है आप एक सुहाने सफ़र के लिए। खोलके इस झरोखे को हम चलते है उस पार जहाँ मेरा बचपन कर रहा है आप सभी का इंतज़ार ।


बिल्ली मौसी -[ यानी मेरी मासी] सोच रहे होंगे आप, कैसी लड़की है, अपनी मासी को बिल्ली कहती है । सब्र रखिये, इस नाम के रखने से जुडा राज़ भी आपको बतलाती हूँ ।

गर्मियों की छुट्टियों मे सब अपने ननिहाल जाते है, मैं भी जाया करती थी । वहां पर हमारी मासी मेरा मतलब बिल्ली मासी भी हुआ करती थी । वैसे हमे मासीजी अच्छी हि
लगती थी ,पर परेशानी तब होती थी जब वो हमे टोकती रहती थी "यह मत करो " वो मत करो । हमने अपने खेलने की एक ख़ास जगह चुनी थी एक लम्बा गलियारा था, वहाँ तीन -चार कमरे थे और दो कमरों के बीच एक खाली जगह हुआ करती थी , जिसे हम खूपचा कहते थे, यही हमारे खेलने की सबसे बेहतरीन जगह हुआ करती थी, कितने ही तरह के खेल खेला करते थे हम यहाँ पर जैसे -ताश के खेल, गुड्डे -गुड्डियों का खेल भी खेलते थे । गुड्डे गुड्डियों की अक्सर हम शादी रचाया करते थे और शादी मे मेहमानों की खातिरदारी करने उन्हें जलपान कराने के लिए हम मम्मी से चवन्नी -अठन्नी माँगा करते थे ताकि हम मसालेवाली तली हुई दाल ,खट्टी -मीठी गटागट की गोली और अन्य खाने -पीने की चीज़े खरीद सके जब। मम्मी हमे पैसे देने लगती तो पता नहीं कहा से मीयाऊँ आवाज़ आजाती, इस आवाज़ को आप लोग पहचान ही गए होंगे,जी हां बिलकुल ठीक पहचाना ये आवाज़ और किसी की नहीं हमारी मौसीजी की हुआ करती थी, वो आके मम्मी से कहती "यान टाबरा ने पैसा नहीं देना चाहे,टाबरा बिगड़ जासी आदता कोणी बिगाड़नि । फिर क्या था मम्मी हमे पैसे नहीं देती क्यूंकि उनके लिए बड़ी बहिन की आज्ञा तो सुप्रीम कमांड हुआ करती थी । हमारी आशाओं पर बिल्ली मौसी पानी फेर दिया करती थी । हम सब बच्चे मिलकर कोंफ्रेंस किया करते थे अपनी वही पसंदीदा जगह पर यानी खुपचे मे । जी भरकर मौसी की बुराइयां करते थे एक जन कहता "क्या समझती है मौसी अपने आपको जब देखो तब ..... फिर कोई कहता "कभी -कभार पैसे मांगने से बच्चे बिगड़ जाते है क्या .....इत्यादि इत्यादि । मेरी एक मौसेरी बहन जिन्हें दुसरो को अलग -अलग नाम देने मे महारथ हासिल थी उन्होंने कहा "मौसीजी तो हर वक़्त हमारा पीछा करती रहती है ,ऐसा लगता है जैसे की दो जलती घूरती आँखे हमारे साथ -साथ चलती रहती है एकदम बिल्ली की तरह "। उनके मुहँ से यह शब्द निकले और हम सब बच्चो ने मिलकर ऊंचे स्वर मे यह उच्चारण किया बिल्लीमौसीयाये नमह और उस दिन हमने हमारी मौसी का नामकरण कर दिया और तभी से उनका नाम बिल्ली मौसी पड़ गया ।

आज इतने साल बीत गये उस बात को । वही बाते जो बचपन मे चिढ पैदा करती थी,आज एकदम सही लगती है। लगता है मौसीजी कुछ गलत नहीं कहती थी ।